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भारत सरकार ने युद्धग्रस्त मुल्कों से अपने नागरिकों को बाहर निकालने में हर बार अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है, चाहे वह 1990 में कुवैत से निकालने का उदाहरण हो, 2006 में लेबनान से या 2011 में लीबिया से हो, पर ऐसे मिशन बहुत चुनौतीपूर्ण होते हैं।
इस समय युद्धविध्वस्त यमन में केरल की नर्सों की खराब स्थिति चर्चा में है। पर इससे संबंधित कई और मुद्दों पर रोशनी डालने की जरूरत है। बीती सदी के सत्तर के दशक में कच्चे तेल की अर्थव्यवस्था में उफान आने पर पश्चिम एशिया में भारतीयों का जाना शुरू हुआ। स्थिति और बेहतर होने से बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में भारतीयों की आवाजाही और बढ़ गई। 2001 में खाड़ी देशों में प्रवासी भारतीयों की आबादी करीब 35 लाख थी। 2011-12 तक वहां भारतीयों की जनसंख्या लगभग दोगुनी बढ़कर 60 लाख हो गई। खाड़ी देशों में प्रवासियों भारतीयों की राज्यवार आबादी के लिहाज से देखें, तो 2001 में केरल पहले स्थान पर था, जिसके बाद तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार और कर्नाटक का स्थान था। लेकिन 2011 आते-आते उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर आ गया, जिसके बाद केरल, आंध्र प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, और पश्चिम बंगाल का स्थान था। वैसे तो हमारा मीडिया विदेशों में बस गए आईटी प्रोफेशनलों को महत्व देता है, लेकिन देश से बाहर जाने वाले ज्यादातर अब भी कम हुनर वाले लोग ही हैं। ये लोग कमजोर हैं और रोजगार के मामले में अपने नियोक्ताओं पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं होते। प्रवासी मामले के विशेषज्ञ विनोद खदरिया हालांकि कहते हैं कि खाड़ी देशों में अपने नागरिकों की सुरक्षा के मामले में हमारी सरकारें हमेशा ही सक्रिय रही हैं। मसलन, कम हुनर वाले अशिक्षित प्रवासियों को शोषण से बचाने के उद्देश्य से ही ईसीआर (इमीग्रेशन चेक रिकॉयर्ड) पासपोर्ट की शुरुआत की गई। इसके बावजूद कुछ कमियां तो हैं ही, जिस कारण उनका शोषण जारी है।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को, जहां से खाड़ी देशों में सबसे अधिक कम हुनर वाले लोग जाते हैं, अपने प्रवासी नागरिकों की सुरक्षा के लिए ज्यादा सक्रिय होना होगा।गौरतलब है कि केवल युद्ध या विवाद के कारण नहीं, दूसरी वजहों से भी प्रवासियों का जीवन प्रभावित होता है। अध्यापन के पेशे से जुड़ी नेहा कोहली के मुताबिक, खाड़ी के कुछ देशों में आई आर्थिक मंदी, जनसांख्यिकी की अनिवार्यताएं, अपने नागरिकों को ज्यादा मौका देने के लिए चले आंदोलन और राजनीतिक अनिश्चितताओं का भी प्रवासियों के जीवन पर नकारात्मक असर पड़ता है। जैसी कि कई रिपोर्टें बताती हैं, शारीरिक श्रम करने वाले प्रवासियों, खासकर निर्माण कार्य से जुड़े कामगारों को कई बार लेबर कैंपों में काफी दयनीय हालत में दिन गुजारने पड़ते हैं। खाड़ी के कई देशों के कानून भी प्रवासी मजदूरों के खिलाफ ही हैं। ऐसे में, अपने नागरिकों को जागरूक करने की जरूरत है कि काम के लिए विदेश जाने की इच्छा रखने वाले लोग उन्हीं एजेंसियों से संपर्क करें, जो विदेशी नागरिक मामलों के मंत्रालय में रजिस्टर्ड हों। इसके अलावा केंद्र व राज्य सरकारों को इसकी भी शिनाख्त करनी होगी कि ग्रामीण स्तर पर गैरकानूनी ढंग से लोग आखिर किस तरह विदेश भेज दिए जाते हैं।
जब भी पश्चिम एशिया में भारतीय कामगारों से जुड़ा कोई मामला सामने आता है, हम पाते हैं कि उसमें नियमों का पालन नहीं हुआ। नतीजतन भारतीय कामगारों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। युद्ध विध्वस्त दौर में भले ही इस तरह के कदम न उठाए जा सकते हों, लेकिन शांति काल में हमें इस दिशा में कुछ ठोस कदम निश्चय ही उठाने होंगे।