यह निस्संदेह एक स्वागतयोग्य कदम है। लेकिन एक बार जब बेमौसम बारिश का संकट खत्म हो जाएगा, राहत बंट जाएगी और देश का ध्यान इससे हट जाएगा कि फसलों को कितना नुकसान हुआ और इसका खाद्य महंगाई पर क्या असर पड़ेगा तो किसानों को एक बार फिर भुला दिया जाएगा। यही खेती-किसानी के लिए हाल के वर्षों में सबसे बड़ी त्रासदी रही है। दरअसल यही मुख्य कारण है, जिसके चलते कृषि की बदहाली दूर होने का नाम नहीं ले रही है।
पिछले बीस वर्षों में तीन लाख के करीब किसानों ने अपनी जान दी है। मैं नहीं जानता कि अभी यह संख्या और कितनी बढ़ने के बाद देश जागेगा और उनकी परेशानियों की सुध लेगा? बेमौसम बारिश ने किसानों को जिस तरह खुदकुशी के लिए मजबूर कर दिया है, वह बस इस सच्चाई की बानगी है कि कृषि अर्थव्यवस्था कितनी नाजुक है। मौसम में थोड़ा-बहुत हेरफेर यानी बेमौसम बारिश, तेज हवाएं, सूखे जैसी स्थितियां भी किसानों के लिए संकट को इस हद तक बढ़ा देती हैं कि वे उनका सामना नहीं कर पाते।
कृषि अर्थव्यवस्था कितनी नाजुक है, इसकी चर्चा अकसर की जाती है, लेकिन इसे समझा बहुत कम जाता है। अकसर यह मान लिया जाता है कि संकट के समय ठीक-ठाक राहत पैकेज पर्याप्त होता है। कोई भी यह नहीं महसूस करता कि इस प्रकार का हर संकट किसानों की आर्थिक ताकत को तीन साल पीछे पहुंचा देता है।
इसे और अधिक साफ तरह से समझने के लिए मैंने कृषि लागत व मूल्य आयोग यानी सीएसीपी की हाल की खरीफ और रबी की फसलों पर आधारित रिपोर्ट को पढ़ा। सीएसीपी के दस्तावेजों का बारीकी से अध्ययन करने पर यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि किसान क्यों आत्महत्या करने के लिए विवश हैं। जब तक सरकार किसानों को निश्चित मासिक आमदनी प्रदान करने के लिए जी-जान से प्रयास नहीं करती, तब तक मुझे कोई उम्मीद नहीं है कि किसानों की डूबती अर्थव्यवस्था उबर सकेगी।
आइए देखते हैं कि कुछ प्रमुख फसलों की पैदावार के संदर्भ में लागत और लाभ की स्थिति क्या है। सीएसीपी सरकार का अपना संगठन है, जो किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार तय करता है। लिहाजा उसकी गणनाएं दूसरे अध्ययनों और सर्वे से कहीं अधिक सटीक होती हैं। हाल की रिपोर्ट में सीएसीपी ने 2010-11 और 2012-13 की अवधि में औसत लागत और लाभ की गणना की है। पूरे देश के स्तर पर गेहूं की फसल में नेट रिटर्न यानी कुल लाभ 14260 रुपए प्रति हेक्टेयर है। तिलहन के लिए यह 14960 रुपए और चने के लिए 7479 रुपए प्रति हेक्टेयर। चूंकि किसानों की आत्महत्या की ज्यादातर घटनाएं उत्तर प्रदेश में होती हैं, इसलिए मैंनेइस क्षेत्र में किसानों द्वारा अपनाए जाने वाले गेहूं-धान फसल के पैटर्न पर आधारित लागत और लाभ का अध्ययन किया। गेहूं के लिए एक किसान द्वारा अर्जित किया जाने वाला औसत लाभ या आमदनी 10758 रुपए प्रति हेक्टेयर है। चूंकि गेहूं छह माह की फसल है, इसलिए इसकी फसल करने वाले एक किसान की औसत आमदनी 1793 रुपए प्रति हेक्टेयर बैठती है।
गेहूं की फसल से इतने कम लाभ के बाद यूपी के किसी किसान के लिए आत्महत्या का मार्ग चुनने की पूरी आशंका होती है। अगर वह धान की फसल भी लगा रहा है तो नेट रिटर्न हद से हद 4311 रुपए हो जाता है। अगर दोनों आमदनी यानी गेहूं और धान से होने वाली आय जोड़ दें तो यह राशि 15669 रुपए हो जाती है, यानी 1306 रुपए प्रतिमाह।
अब आप कहेंगे कि पंजाब में औसत राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा होगा। सीएसीपी ने गेहूं के लिए पंजाब में नेट रिटर्न 18701 रुपए प्रति हेक्टेयर निकाला है। बिहार में किसान की औसतन आय 9986 रुपए है, यानी पंजाब के किसान को मिलने वाली राशि से लगभग आधी।
खरीफ की फसलों की बात करें तो सीएसीपी के अनुमान 2009-10 से 2011-12 के बीच के हैं। देश में धान के लिए कुल आमदनी बमुश्किल साढ़े चार हजार रुपए प्रति हेक्टेयर है। एक अन्य प्रमुख फसल कपास के लिए नेट रिटर्न 15689 रुपए प्रति हेक्टेयर है। यदि राज्यवार लागत को देखें तो पंजाब में धान की फसल 17651 रुपए प्रति हेक्टेयर का लाभ देती है। हरियाणा में यह 17960 रुपए है और आंधप्रदेश में 6483 रुपए।
बिहार और असम में धान के किसानों को नकारात्मक रिटर्न मिलता है। इसका मतलब है कि उन्हें कुल मिलाकर नुकसान होता है। असम में नुकसान 3361 रुपए प्रति हेक्टेयर है और बिहार में 266 रुपए। पंजाब और हरियाणा के किसान आम तौर पर धान के साथ गेहूं की पैदावार करते हैं। इन दो फसलों के संयुक्त लाभ को देखें। गेहूं पंजाब के किसानों को 18701 रुपए प्रति हेक्टेयर का लाभ देता है। इसे अगर धान से होने वाले लाभ से जोड़ा जाए तो राशि आती है एक वर्ष में 36352 रुपए प्रति हेक्टेयर। इसका मतलब है कि पंजाब में एक कृषक परिवार के लिए मासिक आमदनी हुई 3029 रुपए। हां, आपने सही पढ़ा 3029 रुपए। यदि यह पंजाब, हरियाणा और यूपी का औसत है, जिसे देश का खाद्य कटोरा कहा जाता है तो मैं सोच सकता हूं कि देश के दूसरे हिस्सों में किसानों की क्या हालत होगी? किसान इसीलिए आत्महत्या कर रहे हैं और यही कारण है कि उनकी बहुत बड़ी संख्या खेती-किसानी को छोड़ना चाहती है।
आज सबसे बड़ी जरूरत राष्ट्रीय कृषक आय आयोग बनाने की है, जिसका काम अपनी फसल की उत्पादकता पर निर्भर किसानों को मासिक पैकेज सुनिश्चित करना हो। यदि एक चपरासी को न्यूनतम 15000 रुपए मासिक वेतन मिल सकता है, तो हमारे अन्नदाता को एक निश्चित मासिक आमदनी क्यों नहीं होनी चाहिए।
-लेखक खाद्य व कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं