महंगाई पर लगाम लगाने के लिए देश के इस केंद्रीय बैंक के पास परंपरागत रूप से यही उपाय रहता है कि वह ऊंची ब्याज दरों को यथावत रखे, लेकिन इसके बावजूद वह एक लंबे समय से महंगाई पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित होता आ रहा है। इसके दो मुख्य कारण हैं : पहला, देश की अर्थव्यवस्था में काले धन का बड़े पैमाने पर प्रसार, जिसके सामने आरबीआई के पूंजी-नियंत्रण के प्रयास निस्तेज हो जाते हैं। दूसरा, मुनाफा कमा रही अनेक भारतीय कंपनियां आरबीआई की कर्ज नीतियों से परे हैं, क्योंकि उन्हें इतनी ऊंची ब्याज दरों पर घरेलू बैंकों से कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं है। वहीं अन्य कंपनियां कम दरों पर कमर्शियल कर्ज लेना पसंद करती हैं।
ऐसा नहीं है कि आरबीआई को इस सबके बारे में मालूमात नहीं है, लेकिन वह इस बारे में ज्यादा कुछ कर नहीं सकता। वैसे भी ऊंची ब्याज दरों के कारण अर्थव्यवस्था की विकास दर में बाधा नहीं आई है, ऐसा भूमि और पर्यावरण संबंधी क्लीयरेंस में हुए विलंब के कारण निर्मित हुई अनुपलब्धताओं के कारण हुआ है। इस तरह कोई 10 लाख करोड़ की परियोजनाएं लंबित हैं। इनमें से अनेक में विदेशी पूंजी लगी हुई है। वास्तव में आरबीआई ने जानबूझकर एक लंबे समय से ब्याज दरों को ऊंचा ही रखा है, ताकि सरकार ‘समांतर अर्थव्यवस्था" के खिलाफ कार्रवाई करे और आमजन के लिए जरूरी वस्तुओं का आयात करने और उनके निर्यात पर रोक लगाने का कदम उठाए। यह सरकार का काम है, रिजर्व बैंक का नहीं।
कुछ राज्यों में आलू की खेती करने वाले किसान अपने उत्पाद को दस रुपए किलो के दाम पर बेच रहे हैं, वहीं दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू जैसे शहरों के रिटेल बाजारों में इनकी कीमत 20 से 22 रुपए प्रतिकिलो तक पहुंच गई है। देशभर में फैले बेलगाम ट्रेडर्स के शिकार हमारे किसान हो रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि आज देश के कई हिस्सों मेंकिसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। इन किसानों की जान बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को जो जरूरी कदम उठाने चाहिए, उन्हें वे नहीं उठा रही हैं। न ही वे खुदरा सामग्रियों की कीमतों पर लगाम लगाकर आम आदमी के लिए कुछ कर रही हैं। उल्टे वह रिजर्व बैंक से यह उम्म्ाीद करती है कि वह औद्योगिक और उद्यम संबंधी कर्जों पर ब्याज दरें घटाएं, ताकि कारोबारी अंतरराष्ट्रीय दरों पर उत्पादन कर सकें। लेकिन रिजर्व बैंक का काम है मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखना और इसके मद्देनजर वह ऐसा नहीं कर सकती, जबकि वह इस बात को भलीभांति जानती है कि आज भारत में मुद्रास्फीति रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की मोहताज नहीं रह गई है।
देश में कालेधन का कारोबार चलाने वाले लाखों लोगों के लिए गरीब लोगों के लिए जरूरी चीजों का बाजार मूल्य कोई मायने नहीं रखता। उनके पास अथाह पैसा है, काला और सफेद दोनों, और वे कभी इस बात की फिक्र नहीं करते कि दैनिक उपयोग की जरूरी चीजों के खुदरा भाव क्या हैं और उनका थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर क्या असर पड़ेगा। यह वर्ग सोने का आयात करने के लिए हर साल तीन लाख 72 हजार करोड़ रुपए खर्च करता है। और वे लगभग इतनी ही रकम अपने ऐशो-आराम की अन्य दूसरी चीजों के आयात पर भी खर्च करते हैं। क्या सरकार या रिजर्व बैंक ने कभी यह जानने की कोशिश की है कि भारत में महंगे सोने, आईकेईए फर्नीचर्स, इटैलियन किचन्स, इंपोर्टेड मार्बल स्टोन्स, कोस्टा कॉफी, प्रीमियम स्कॉच व्हिस्की, फ्रेंच वाइन और परफ्यूम, स्विस घड़ियां और जूते, इटैलियन और जर्मन इनर वियर्स, महंगे स्मार्टफोन्स आदि की इतने भारी पैमाने पर मांग क्यों है और किस वर्ग द्वारा यह मांग की जा रही है?
लेकिन चूंकि यह वर्ग बड़ा प्रभावी और मुखर है, इसलिए निर्वाचित प्रधानमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर दोनों ही उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। लेकिन मुसीबत यह है कि वित्त मंत्री भी चुप हैं। वे चुपचाप इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर ब्याज दरों में कुछ छूट दें, तब जाकर वे कुछ करें। दूसरी तरफ रिजर्व बैंक के गवर्नर यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि आज भारत में मुद्रास्फीति की जो स्थिति है, उसके लिए सरकार की ही नीतियां और देश में फैले काले धन को लेकर उसका रुख जिम्मेदार है। वे भी यही उम्मीद लगाए हुए हैं कि सरकार पहले अपने स्तर पर कोई कार्रवाई करे। यानी कि सरकार और रिजर्व बैंक के बीच पहले आप-पहले आप का खेल चल रहा है। हाल ही में वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तालमेल की कोई कमी नहीं है। यह फौरी बयान इसी बात को जताता है कि फिलवक्त तो सरकार के पास मौजूदा हालात के लिए कोई सरल समाधान नहीं है।