हालांकि राजग सरकार ने तर्क दिया, जिसका कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने समर्थन भी किया, कि विकास कार्यक्रमों के लिए दी जाने वाली केंद्रीय सहायता में 75,000 करोड़ रुपये की कटौती भले हुई हो, पर बदले में राज्यों को केंद्र द्वारा संचित विभिन्न करों और शुल्कों से दी जाने वाली 1,85,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि वस्तुतः उसकी भरपाई से भी अधिक है। दरअसल राजग सरकार ने 14वें वित्त आयोग की सिफारिश मंजूर करते हुए केंद्र द्वारा संचित कर राशि में राज्यों की हिस्सेदारी वर्तमान 32 फीसदी से बढ़ाकर 2015-16 से 42 फीसदी कर दी है। राज्यों की कर हिस्सेदारी में यह एकमुश्त सबसे बड़ी बढ़ोतरी है।
इसलिए राजग सरकार ने चिदंबरम के तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 1,85,000 रुपये की सीधे-सीधे मिलने वाली अतिरिक्त राशि से राज्य सरकारें सर्वशिक्षा अभियान, समेकित बाल विकास कार्यक्रम, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम, पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि आदि के मद में की जाने वाली कटौती के अंतर को पाट सकती हैं। जब इन पंक्तियों के लेखक ने पी. चिदंबरम से पूछा कि राज्यों की कर हिस्सेदारी में हुई बढ़ोतरी, और इस संदर्भ में राजग सरकार के तर्क को वह किस तरह देखते हैं, तो पूर्व वित्त मंत्री का जवाब था कि पहले वह देखेंगे कि राज्य उस अतिरिक्त राशि का वास्तव में किस तरह उपयोग करते हैं। उसके बाद ही वह बता पाएंगे कि केंद्र प्रायोजित विकास राशि के बदले राज्यों के नेता क्या वास्तव में बेहतर विकास की पहल कर रहे हैं या नहीं।
एक आशंका यह है कि अगर क्षेत्रीय नेता इस राशि का उपयोग व्यर्थ के खर्च में करेंगे, जैसे कि कुछ वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की सरकार ने बड़े पैमाने पर लैपटॉप बांटकर किया था, तो क्या होगा? दूसरा तर्क यह है कि राज्यों की राजनीति में क्रॉनी कैपिटलिज्म और भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर है, जो नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा भी पकड़ में नहीं आता, क्योंकि सीएजी का मुख्य ध्यान केंद्र के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों पर रहता है। यह सर्वविदित है कि राज्य सरकारों के पैसे पर किस तरह कुछ क्षेत्रीय पूंजीपतियों का कब्जा होता है। जैसे उत्तर प्रदेश में पोंटी चड्ढा ने किया था, वैसे ही लोग अन्य राज्यों में भी हैं। यहां तक कि मिड डे मील जैसी कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में भी भ्रष्टाचार होता है।
चौदहवें वित्त आयोग के आर्थिक सलाहकार प्रो. पिनाकी चक्रवर्ती का एक लेख इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में छपा है, जिसमें उन्होंने बताया हैकि वर्ष 2014-15 के 3,37,808 करोड़ रुपये की तुलना में राज्यों को वर्ष 2015-16 में केंद्र से प्रत्यक्ष कर हस्तांतरण के रूप में 5,23,958 करोड़ रुपये मिलेंगे। वह बताते हैं कि राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्रीय सहायता से चलने वाली अच्छी कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखने के लिए स्वतंत्र हैं, और अगर वे चाहें, तो इसे पूरी तरह से राज्य संचालित योजनाओं में बदल सकते हैं। यानी विचार यह है कि राज्यों को अपने धन के उपयोग में पूरी स्वतंत्रता दी जाए कि वे उसे कैसे खर्च करना चाहते हैं।
लेकिन राज्यों को इस बात के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा कि केंद्रीय सहायता में कटौती के बाद एक लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि को वे किस तरह खर्च करते हैं। जाहिर है, राज्यों के पास ज्यादा वित्तीय अधिकार होंगे, तो उनकी जवाबदेही भी ज्यादा होगी। जो राज्य एक लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त धन प्राप्त करेंगे, उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, स्वच्छता, आवास, पेयजल जैसे अपने विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में जमीनी स्तर पर नतीजे दिखाने होंगे। भविष्य में वे यह शिकायत नहीं कर सकते कि केंद्र उन्हें इन कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त धन नहीं दे रहा है।
राजग सरकार ने यह भी फैसला किया है कि पिछले 25 वर्षों में कोयला खदानों की नीलामी से प्राप्त करीब दस लाख करोड़ रुपये वह संबंधित राज्यों को सौंप देगी। इससे पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे कोयला वाले राज्यों को भारी फायदा होगा, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से गंभीर पिछड़ेपन का नुकसान उठाना पड़ा है। बदले में इन राज्यों की विशेष जिम्मेदारी होगी कि वे इन पैसों को समावेशी विकास कार्यक्रमों पर खर्च करें। अगर बिना नियंत्रण एवं संतुलन के इस उपहार का फायदा सिर्फ क्षेत्रीय मित्रों और सहयोगियों को मिलता है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस उपहार से कैसे एक नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था उभरती है।
भाजपा के नजरिये से देखें, तो यह अपनाने लायक एक दिलचस्प राजनीतिक रणनीति है। याद किया जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का हमेशा राजनीतिक शासन की एक मजबूत एकात्मक प्रणाली में विश्वास रहा है। इस ऐतिहासिक रुख के साक्ष्य जनसंघ के प्रारंभिक घोषणापत्रों में उपलब्ध हैं। आज लोकसभा में बहुमत के साथ आई भाजपा वित्तीय संघवाद को बढ़ा रही है, लेकिन इस उम्मीद के साथ कि इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के व्यापक एजेंडे से जोड़ा जा सकता है। वास्तव में यह एक नए किस्म का द्वंद्ववाद है, जिस पर संघ परिवार काम कर रहा है।