हाल के दिनों में परीक्षा में नकल को लेकर कई तरह की खबरें आयीं. नकल क्यों हो रहा है, इस सवाल पर विचार करने के बजाय इसे इस तरह से पेश किया गया जैसे यह बीमारी अभी ही शुरू हुई है. न इसकी ऐतिहासिकता को लेकर कोई चर्चा हुई, न ही इसके पीछे छुपे कारणों पर ध्यान दिया गया.
जबकि सच्चई यही है परीक्षा में, खास कर स्कूल और कॉलेजों की परीक्षा में नकल कोई नयी बात नहीं है. लेकिन, नकल की बीमारी पर हमारा ध्यान उस वक्त आकृष्ट होता है, जब हर साल मार्च महीने में इसकी खबरें आती हैं. ये खबरें अक्सर इस अंदाज में दी जाती हैं कि बीमारी का जिक्र चिंता पैदा करने की जगह लोगों का मनोरंजन करे.
यह बीमारी किसी प्रदेश विशेष तक सिमटी हो, ऐसा भी नहीं है. न सिर्फ भारत में, बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशियाई समाज को इस बीमारी की आदत है. यह बीमारी कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने परीक्षा में नकल का हवाला अपने एक सार्वजनिक व्याख्यान में दिया था. उन्होंने समझाया था कि समस्या सिर्फ़ नकल करके सफलता हासिल करने वाले छात्रों की नहीं है. जो छात्र नकल का सहारा नहीं लेते, रटंत विद्या पर निर्भर है, वे पूरी किताब रट कर याद कर लेते हैं. टैगोर ने उनकी तुलना हनुमान से की थी, जो संजीवनी बूटी लाने गये थे, पर पूरा पहाड़ ले आये.
दरअसल, टैगोर की व्यंजना हमें समझाती है कि परीक्षा में नकल की बीमारी दरअसल स्वयं एक बीमारी नहीं है, यह एक बीमार व्यवस्था का लक्षण है. यह इशारा करती है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई का उद्देश्य समझना नहीं, इम्तिहान में अधिक अंक लाना है. मां-बाप, बच्चे और अध्यापक सभी का जोर परीक्षा की तैयारी पर रहता है. शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के तहत यह व्यवस्था की गयी थी परीक्षा पर अंकुश लगे, लेकिन फिर से परीक्षा की ओर लौटने का दबाव बढ़ रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि परीक्षा की तैयारी कैसे हो. इसके लिए तो स्कूल में पढ़ाई की व्यवस्था करनी होगी. स्कूल को नियमित रूप से चलाना होगा.
अभी हाल में सर्वेक्षण के लिए कुछ जगहों पर जाने का मौका मिला. व्यवस्था कैसी है, इस पर जवाब देने के बजाय बच्चों द्वारा यह सवाल खड़ा किया गया कि सर्वेक्षण के लिए अभी क्यों आये. स्कूल में पढ़ाई होती नहीं, छोटी-छोटी बातों पर छुट्टियां हो जाती हैं. जब पढ़ाई कीमुकम्मल व्यवस्था ही नहीं होगी और सिर्फ पास करना या कराना ही परीक्षा का उद्देश्य होगा, तो फिर छात्र के सामने विकल्प क्या है?
पाठ्यक्रम बनानेवाले भी परीक्षा के दृष्टिकोण से ज्ञान की मात्र तय करते हैं. परीक्षा का पर्चा बनानेवाले और उत्तरों पर नंबर देनेवाले परीक्षक भी छात्र की समझ पर ध्यान नहीं देते. प्रश्न होते ही इस तरह के हैं कि उसका उत्तर रट कर दिया जा सके. यदि कोई छात्र ऐसा उत्तर लिख दे, जिसमें समझने का प्रयास या कल्पना के लक्षण नजर आते हों, तो उसे कम नंबर मिलेंगे.
जो अध्यापक बच्चों में समझ या जिज्ञासा विकसित करने का प्रयास करता है, उसे अनोखा माना जाता है! बच्चों में जिज्ञासा पैदा करने की बजाय स्कूल के प्राचार्य और बच्चों के माता-पिता शिक्षक पर इस बात के लिए जोर डालते हैं कि बच्चों को परीक्षा के लिए तैयार करें. मतलब कि समझने की जगह याद करना और प्रश्नों का जवाब फटाफट देना सिखाएं.
अब जिस व्यवस्था में पढ़ाई का एक मात्र लक्ष्य परीक्षा पास करना हो, और हमने उसी तरह की परीक्षा प्रणाली विकसित की हो जिसमें ज्ञान अजिर्त करना छात्रों का उद्देश्य न हो, बल्कि परीक्षा में अधिक अंक लाना ही एकमात्र उद्देश्य हो, तो फिर इस तरह की विकृ तियां तो देखने को मिलेंगी ही.
दसवीं, बारहवीं की परीक्षा में बच्च अधिक से अधिक अंक हासिल करे, इसके लिए ट्यूशन और कोचिंग का व्यापार खूब फल-फूल रहा है. यह एक उद्योग की शक्ल ले चुका है, जिसमें अरबों रुपये लगते और लगाये जाते हैं. बच्चों का पठन-पाठन ही नहीं, बल्कि शिक्षक का प्रशिक्षण भी पूरी तरह से उद्योग की शक्ल ले चुका है.
परीक्षा में नकल कराना या नकल के सहारे पास करना स्वयं में एक असंगठित उद्योग है और भ्रष्ट व्यवस्था तंत्र का हिस्सा बन चुका है. पूरी हिंदी पट्टी में इस उद्योग के केंद्र फैले हैं. माता-पिता की बात तो छोड़ ही दें, शिक्षक भी बच्चों को नकल कराते हैं और उन्हें अच्छे नंबर से पास होने की गारंटी दी जाती है.
यह बात और है कि कुछ प्रदेशों, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश के कुछ जिलों, में यह प्रक्रिया ज्यादा बड़े और व्यवस्थित तरीके से संपन्न होती है. पास कराने और अच्छा नंबर दिलवाने की गारंटी ली जाती है. इनमें कुछ परीक्षा केंद्रों की ठेकेदारी का चलन है. दसवीं, बारहवीं या विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में पास होने के लिए दूर-दूर से छात्र इन केंद्रों का रोल नंबर लेते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बातें गुपचुप तरीके से होती हैं. शासन-प्रशासन, सबको इस बात की जानकारी होती है. वे इसमें पूरी तरह से सहभागी होते हैं.
आप अंदाज लगा सकते हैं कि परीक्षा यदि बच्चों की बेहतरी के लिए है, तो फिर इसमें पुलिस प्रशासन का क्या काम? आखिर क्या कारण है कि हमें परीक्षा संचालित करने के लिए पुलिस बल की सहायता लेनी पड़ती है. हिंदी पट्टी ही क्यों, समूचे देश में वसंत के मौसम में परीक्षा संपन्न कराना पुलिस की एक बड़ी जिम्मेवारी बन जाती है. स्वयं शिक्षा विभाग अपने उड़न दस्ते बनाता है. इधर-उधर कुछ घटनाएं नकल पर प्रहारकरतीहैं. कई बार कुछ मामले कचहरी में भी जा पहुंचते हैं. लेकिन, वसंत की विदाई के साथ सब कुछ सामान्य हो जाता है.
हालांकि सभी जगह एक जैसे ही हालात हैं, ऐसा भी नहीं हैं. ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा-2005′ के तहत लाये गये सुधार केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसइ) से जुड़े स्कूलों पर कुछ असर दिखला सके हैं. वहां व्यवस्थाएं सुधरी हैं. परीक्षा, पाठ्यक्रम और अध्यापन में सुधार के प्रयास लगातार हुए हैं और उन्हें सफलता भी मिली है. लेकिन, इनकी संख्या देश के कुल माध्यमिक स्कूलों की संख्या के मुकाबले दस फीसदी से भी कम है. बाकी स्कूल प्रांतीय बोर्डो से जुड़े हैं. इनमें से कुछ ने 2005 की पाठ्यचर्चा के द्वारा शुरू हुए सुधारों को लागू करने का प्रयास किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़ी आबादीवाले राज्यों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है.
इस तरह देखें तो आप कह सकते हैं कि नकल की बीमारी का थोड़ा-बहुत इलाज जिन स्कूलों में चल रहा है, वहां भारत के अभिजात्य वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं. वहां यह समस्या उतनी बड़ी नहीं है. शेष स्कूल, जहां बड़ी आबादी के बच्चे पढ़ते हैं, न सरकारों के ध्यान में रहते हैं, न मीडिया की सुर्खियों में. हमें नकल की सुर्खियों का इंतजार करने के बजाय पूरी व्यवस्था पर सोच-विचार करना होगा, तभी हम वसंत के महीने में अच्छे परिणाम की अपेक्षा कर सकते हैं. (संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
बिहार और उत्तर प्रदेश में नकल का स्वरूप अलग-अलग