आज भूमि अधिग्रहण विधेयक का विरोध हो रहा है। पर अगर आजादी के तत्काल बाद सरकार किसान और उसकी जमीन के संदर्भ में अंग्रेजों के पूर्व की स्थिति बहाल कर देती, तो यह स्थिति पैदा नहीं होती। यानी आजादी के बाद की कांग्रेसी सरकारें भी विकास के लिए वही नीति अपनाना चाहती थी, जो अंग्रेजों की थी। अंग्रेजों से पहले राजाओं, सुल्तानों व मुगलों के समय तक किसान ही जमीन का मालिक होता था और राज्य किसानों से कर लिया करता था। कृषि भूमि पर अमूमन ग्राम समुदाय, गांव में बसे कुल या भातृसंघ का अधिकार होता था।
पर जैसे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले प्लासी की लड़ाई जीती, और बाद में बक्सर की लड़ाई में बंगाल, अवध व दिल्ली के बादशाह की साझा सेना का पतन किया, वैसे ही गंगा-जमना के उपजाऊ मैदान का बड़ा हिस्सा सीधे उसकी निगरानी में आ गया और उसने भू राजस्व के नए कानून बनाकर जमीन से किसानों की मिल्कियत समाप्त कर दी। कंपनी ने पहले की उपज कर नीति बदल दी और उपज के बदले नकद भुगतान की मांग करने लगे। नतीजतन ग्राम समुदाय अंग्रेजों के जमींदारों को नकद कर देने लगे। इससे जमीन से किसान की मिल्कियत तो गई ही, नकद मुद्रा के अभाव के कारण किसान की फसल मिट्टी के मोल जाने लगी।
कंपनी की इस नई कर नीति के कारण नए-नए हिंदुस्तानी और अंग्रेज जमींदार जमीन अपने नाम लिखाने लगे और मूल किसान उन्हीं के घर पर टहल-सेवा में लग गए। अवध की उपजाऊ जमीनें और बंगाल के सुसिंचित धान के कटोरे इन नए जमींदारों के पास चले गए। उस समय का वर्णन करते हुए सर जॉन स्टार्थी ने लिखा है-निजी संपत्ति में भूमि की मात्रा बढ़ाने की हमारी नीति रही है, जबकि पिछली सरकारों ने इसे बमुश्किल मान्यता दी।
जमीन पर मिल्कियत न होने से किसान अब न कर्ज ले सकता था, न उसे चुकता कर पाने की स्थिति में होता था। नतीजतन सीमांत किसान मजदूर बनते चले गए और किसानी के अभाव में गांव के पारंपरिक शिल्पी समाज के लोग बदहाली में शहर जाकर बसने लगे। बुनकरी का सारा काम-धंधा चौपट हो गया। लॉर्ड विलियम बेंटिक ने लिखा है, भारत के किसानों की जैसी दुर्दशा का और कोई उदाहरण वाणिज्यिक इतिहास में मिलना मुश्किल है। बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदानों की धुलाई हो रही है। मलमल के लिए पूरी दुनिया में मशहूर ढाका की जनसंख्या 1827 से 1837 के बीच डेढ़ लाख से घटकर मात्र बीस हजार ही रह गई है। बंगाल में जो मालगुजारी 1764-65 में 8,11,000 पाउंड थी, वह 1765-66 में बढ़कर 17,40,000 पाउंड हो गई।
ये आंकड़े बताते हैं कि जमीन से मिल्कियत खत्म करने की नीति ने किसानों को बर्बाद किया। इसी कारण साहूकारी व्यवस्था को बढ़ावा मिला। आजादी के बाद कहने को किसान जमीन का मालिक बना, पर एक तरह का शिकमी मालिक ही। उससे कलेक्टर द्वारा निर्गत धारा 4 का विरोध करने का हक छीन लिया गया। धारा 4 के विरुद्ध जो आपत्तियां मांगी जाती हैं, वे इतनी लचर हैं कि किसान उसे साबित नहीं कर पाते और उनकी जमीनें कभी नगर निकायोंद्वारा, कभी प्रदेश व केंद्र सरकारों द्वारा अधिगृहीत कर ली जाती हैं। जब तक किसान को जमीन का मौरूसी हक अंग्रेजों की पूर्व स्थिति से बहाल नहीं होता, तब तक किसान की जमीन जाती रहेगी। जमीन का मौरूसी हक हासिल करने के अलावा किसानों को यह मांग भी करनी चाहिए कि नकदी के बजाय सरकारें उनकी उपज को मुद्रा मानकर मूल्य निर्धारण करे, ताकि प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट हुई फसल की भरपाई उसे खुद-ब-खुद हो जाए।