किसने मारा उन 42 लोगों को? – सुधांशु रंजन

हाशिमपुरा मामले में जीवित बचे सभी 16 अभियुक्तों की निचली अदालत द्वारा हुई रिहाई ने भारत की न्याय व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल खड़ा किया है। लगभग 28 वर्षों के इंतजार के बाद मृतकों के परिजनों को जोर का झटका लगा, जब संदेह का लाभ देते हुए अदालत ने अभियुक्तों को बरी कर दिया। घटना 22 मई 1987 की है, जब मेरठ के हाशिमपुरा से प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) के जवानों ने कथित रूप से 42 लोगों को गोलियों से भून दिया था। उन पर हत्या, आपराधिक षड्यंत्र एवं साक्ष्यों को नष्ट करने के आरोप थे। स्थिति तब विस्फोटक हो गई थी, जब प्रभात सिंह नामक एक डॉक्टर की हत्या मुस्लिम समुदाय की भीड़ ने कर दी, जबकि वे उसी समुदाय के एक मरीज को देखने जा रहे थे।

इस घटना के तीन दिन बाद पीएसी ने हाशिमपुरा से बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया, जिनकी संख्या सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक 324 थी। इन सभी को ट्रकों में लाद दिया गया। इनमें से लगभग 50 को एक निर्जन स्थान पर ले जाया गया, जहां उन्हें उतारकर गोली मारी गई और गाजियाबाद में गंगनहर में फेंक दिया गया। इनमें से 6 किसी तरह जीवित बच गए और उनमें से एक जुल्फिकार भागकर दिल्ली आया। उसने सैयद शहाबुद्दीन से मुलाकात की और दोनों ने संवाददाता सम्मेलन कर इस भयंकर घटना की जानकारी दी। नहर में कई शव तैरते पाए गए। राज्य सरकार यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थी कि इतने लोगों की बिना वजह इस प्रकार हत्या की गई। इस कारण परिजनों को उनके मृत्यु प्रमाण-पत्र भी नहीं दिए जा रहे थे। उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर कर मुआवजे तथा जांच की मांग की गई। तब अदालत के निर्देश पर उन्हें मृत्यु प्रमाण-पत्र दिए गए। परंतु जांच का काम ठप रहा। काफी हो-हल्ले के बाद राज्य सरकार ने सीबी-सीआईडी को इसके अन्वेषण का जिम्मा सौंपा।

गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने कहा है कि जांच में प्रारंभ से ही पूर्वग्रह था कि अभियुक्तों को कैसे बचाया जाए। 1996 में राज्य सरकार ने 19 पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किए। इनमें से किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया, जबकि अदालत ने 23 गैर-जमानती वारंट उनके विरुद्ध जारी किए। यह कानूनी प्रक्रिया का विचित्र चेहरा है कि ये सभी अभियुक्त सरकारी सेवा में थे और इसके बावजूद राज्य सरकार उन्हें फरार बता रही थी। इस तरह वे अन्वेषण को प्रभावित करने, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने एवं गवाहों को धमकाने की स्थिति में थे। यह राज्य एवं अभियुक्त के बीच मिलीभगत का चेहरा है। पुलिसकर्मियों ने अपने सहकर्मियों को गिरफ्तार नहीं किया और उन्हें फरार घोषित कर दिया। लेकिन इसमें अदालत की जिम्मेदारी भी बनती है। अदालत उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को निर्देश दे सकती थी कि इन अभियुक्तों को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जाए। ऐसा नहीं होने पर अदालत उनके विरुद्ध अदालत की अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के लिए उच्च न्यायालय से निवेदन कर सकती थी।

सितंबर 2002 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर मामले को गाजियाबाद सेदिल्ली की तीस हजारी अदालत में स्थानांतरित किया गया, किंतु तकनीकी आधारों पर सुनवाई स्थगित होती रही। इस दरम्यान तीन अभियुक्तों की मौत हो गई। किंतु इस पूरे घटनाक्रम में सिविल सोसायटी का एक उत्साहवर्द्धक पक्ष यह है कि सांप्रदायिक हिंसा के शिकार होने वाले डॉ. प्रभात सिंह के पिता प्रो. हरपाल सिंह पीड़ितों के परिवारों के साथ दोषी पुलिसकर्मियों को सजा दिलाने के लिए लगातार लड़ते रहे। ट्रायल कोर्ट ने आरोपों के गठन के लिए सन 2000 के सितंबर एवं अक्टूबर में तारीखें निश्चित कीं, जिसके लिए सरकारी वकील तैयार नहीं था। 13 दिसंबर को सीबी-सीआईडी ने अदालत से निवेदन किया कि विशेष लोक अभियोजक नियुक्त करने के लिए उसे समय चाहिए।

एक समुदाय के 42 व्यक्तियों की बर्बर हत्या के 28 वर्ष बाद आरोपी पुलिसकर्मियों को पहचान के अभाव में छोड़ा जाना पुलिस बल में व्याप्त भ्रष्टाचार पर गंभीर टिप्पणी है, क्योंकि ये अभियुक्त उस दिन हाशिमपुरा में मौजूद थे। इससे पता चलता है कि अन्वेषण कितनी बेईमानी एवं गैर-पेशेवर तरीके से किया जाता है। मनु शर्मा को भी जेसिका लाल हत्याकांड में पहचान के अभाव में बरी कर दिया गया था, जबकि घटना के तुरंत बाद पुलिस ने उसकी पहचान कर ली थी। विलंब न्याय के चक्र को पटरी से उतारता है और हर अपराधी कोई न कोई पेंच एवं प्रभाव का इस्तेमाल कर विलंब कराता है, ताकि साक्ष्य समाप्त हो जाएं व गवाह न मिल सकें। मामले में तीन जांच अधिकारियों की मौत भी ट्रायल के दौरान ही हो गई।

भारतीय न्याय प्रणाली का सबसे बड़ा कोढ़ है विलंब। एक पक्ष हमेशा मामले को लटकाना चाहता है। अन्वेषण अपना काम ईमानदारी से नहीं करता, अभियोजन के काम में भी दक्षता का अभाव है और वकील मामले को लंबा खींचने के लिए कोई भी कृत्य करने को तैयार रहते हैं। वे अदालत के अधिकारी के रूप में न काम कर अपने मुवक्किल के सहायक के रूप में काम करते हैं। और इस सबसे ऊपर है जजों की भूमिका। यदि अदालत सख्त हो तो अन्वेषण, अभियोजन एवं बचाव पक्ष के षड्यंत्र को निष्फल किया जा सकता है। विलंब का एक बहुत बड़ा कारण न्यायाधीशों का कामकाज भी है। आपराधिक मामलों के लंबा खिंचने से गवाह के पलट जाने की संभावना भी काफी बढ़ जाती है। विलंब की समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि स्थगन की व्यवस्था या तो पूरी तरह खत्म की जाए या इसे सीमित किया जाए। अनुसंधान में गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों को भी दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए। यह अकारण नहीं है कि भीड़ अपराधियों को पकड़कर उनकी हत्या कर देती है। न्यायिक व्यवस्था की गिरती साख के कारण दीमापुर जैसी घटनाएं होती हैं।

 

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