हकीकत यह है कि जब भी ऐसा मौका आया, ग्रामोद्योगों की उपेक्षा ही हुई। सितंबर, 2014 में मोदी सरकार ने जब लघु-मध्यम उद्योग नीति लाने की बात कही, तब भी हमारे ग्रामोद्योग एक अलग नीति की बाट जोहते रह गए। भारत सरकार विदेश से आने वाली उर्वरक जैसी चीजों पर सबसिडी देती है। पर इस सरकार ने तो खादी और ग्रामोद्योगों पर पूर्व में दी जाती रही सबसिडी भी छीन ली है। करीब ढाई वर्ष पूर्व जब मनमोहन सिंह सरकार ने अपने सभी केंद्रीय मंत्रालयों, इनके विभागों और सभी सार्वजनिक उपक्रमों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वे अपनी वार्षिक खरीद का बीस फीसद माल अतिलघु, लघु और मझोले उद्यमियों से ही खरीदें; ग्रामोद्योगों का अलग से खयाल तब भी नहीं रखा गया। इसमें दो राय नहीं कि प्रस्ताव में ‘उद्यमियों’ की जगह ‘ग्रामोद्यमियों’ लिख देने मात्र से ग्रामोद्योग के हिस्से में कुछ निश्चिंतता तो अवश्य आती। उदारीकरण के नाम पर आई गलाकाट प्रतियोगिता के कारण अस्तित्व का संकट झेल रहे हमारे देशी-गंवई कारोबारियों को बड़ी राहत मिलती।
सब जानते हैं कि जीडीपी में कृषि के घटते योगदान, खेती की जमीन को लेकर कंपनियों के बढ़ते लालच, बढ़ते शहरीकरण और भूमि अधिग्रहण को लेकर मोदी सरकार द्वारा पेश नीयत से तय है कि आगे चल कर ग्रामवासियों के कष्ट और पलायन की रफ्तार, दोनों बढेंगे। किसान, मालिक से मजदूर बनने को विवश होगा। यह भी सच है कि गांवों के कष्ट, वैमनस्य और पलायन रोकने का एक तरीका साझी खेती को जीवंत करना है, और दूसरा ग्रामोद्योग को। खेती का साझा उपक्रम बनना, प्रेरणा की मांग करता है। ग्रामोद्योग, बिना साझे के चल नहीं सकते। ग्रामोद्योगों के लिए आज चुनौतियां ज्यादा हैं और सहूलियतें कम। अत: जरूरी है कि खेती में स्वालंबन की कोशिश जारी रहे और ग्रामोद्योगों की समृ़िद्ध के प्रयास फिर से बुलंद हों।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह सब जानने-बूझते हुए भी हमारी केंद्र सरकार न किसानों की चिंता से चिंतित दिखाई दे रही है और न ग्राम्य उद्यमियों की। यहां ग्रामोद्योग से मतलब महज गांव की जमीन पर लगा उद्योग नहीं है; ग्रामोद्योग की परिभाषा में स्थानीय हुनर, स्थानीय सामग्री और गांव की मर्जी से चलने वाले ऐसे उद्योग आते हैं, जो गांव वालों को गांव में टिकाएरखते हुए उन्हें सेहत, समृद्धि, साझापन, रोजगार और सामाजिक शक्ति देते हों।
स्मरण रहे कि महात्मा गांधी ने अपने समय के सात लाख गांवों की अर्थ-रचना को सामने रखते हुए स्पष्ट चेतावनी दी थी- ‘यदि ग्रामोद्योगों का लोप हो गया, तो भारत के सात लाख गांवों का सर्वनाश हो गया समझिए।’ वे तो ढांचागत निर्माण के लिए हेतु गांव के पांच किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध सामग्री का ही उपयोग करने की मंजूरी देते थे। जाहिर है कि महात्मा गांधी गांवों के अस्तित्व के लिए ग्रामोद्योग और ग्रामोद्योग के अस्तित्व के उक्त शर्त को जरूरी मानते थे। पर भारत न तो गांधी की मंजूरी याद रख सका और न चेतावनी। नतीजा?
अन्य विकल्पों के कारण आज भारत के गांव- समाज की आर्थिक गरीबी भले ही घट रही हो, पर उसका सामाजिक साझा टूट रहा है। परिणामस्वरूप आपसी रिश्तों में गरीबी, विषमता और वैमनस्य बढ़ रहे हैं। गांव के लोग, आज गांव से निकल कर गांव की सड़कपर रहना चाहते हैं। नशा, नई लत बन कर गांवों में पांव पसार चुका है। यह भारत के बदलते गांव-समाज की कटु सच्चाई है।
विश्लेषण करें तो गांवों में पहुंची ऐसी बुराइयों की बड़ी वजह सामाजिक शर्म का कम होना तो है ही, कटाई-बिजाई का समय छोड़ कर शेष समय काम का कम होना भी है। ‘खाली दिमाग शैतान का घर’, यही कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। मनरेगा एक वर्ग-विशेष को ही काम दे सका है। ग्रामोद्योग ही इस कमी की पूर्ति कर सकते हैं। प्रधानमंत्री ने सांसद आदर्श ग्राम योजना की घोषणा की है। ग्रामोद्योगों का संरक्षण और विकास, आदर्श ग्राम का मानक बनना ही चाहिए। गांवों को कंपनी के फावड़ों, प्लास्टिक के कप-पत्तलों और अंगरेजी दवाइयों की जगह गांव के लुहार का फावड़ा, कुम्हार का कुल्हड़, पत्तल-दोना और देसज चिकित्सा की ज्ञान पद्धति लौटानी ही होगी।
आखिरकार, हम कैसे भूल सकते हैं कि अपनी शुद्धता के कारण ही हमारे परंपरागत ग्रामोद्योग हमारे गांवों का गौरव रहे हैं? कश्मीरी शाल, हिमाचली टोपी, भोटिया दुमला, जयपुरी रजाई, राजस्थानी बंधेज, मेरठ की कैंची, रामपुरी चाकू, हाथरस की हींग, अलीगढ़ी ताले, बरेली का बेंत उद्योग, कन्नौज का इत्र, लखनऊ की चिकनकारी, मऊ की तांत साड़ी, भागलपुरी चादर से लेकर असमिया सिल्क तक ऐसे कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्हें भारतीय कुटीर और परंपरागत उद्योग जगत की शान माना जाता रहा है।
एक जमाने में ये तमाम उत्पाद अपनी गुणवत्ता के कारण इलाकाई ब्रांड प्रोडक्ट की तरह करोड़ों को रोजगार देते रहे हैं। इनके कारण शिक्षित-अशिक्षित… हर जरूरतमंद ग्रामीण अपनी जड़ों से उखड़े बगैर अंशकालिक काम पाता रहा है। ग्रामीण स्वावलंबन में हमारे लकड़ी के खिलौने, हमारी आटा चक्कियां, कोल्हू, कुम्हार का चाक, कत्तिन के चरखा से लेकर वैद्यराज की वैद्यकी तक की हमेशा अहम भूमिका रही। महात्मा गांधी जैसे युगद्रष्टा ने इनकी वकालत की। इन्हें संरक्षण देने के उदद्ेश्य से ही खादी-ग्रामोद्योग आयोग की नींव रखी गई, जो अपने ही कारणों से उदद्ेश्य की पूर्ति में विफल रहा। दुखद है कि धीरे-धीरे खादी और ग्रामोद्योग का विचार, श्रम, चरखा और व्यापार… सब छूट रहा है।
याद करने की बात है कि बतौरतत्कालीनपंचायत मंत्री मणिशंकर अय्यर ने ग्राम हाट की योजना का श्रीगणेश किया था। इसमें स्थानीय ग्रामीण उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित करने के लिए कई कायदे भी बनाए गए थे। मालूम नहीं, यह योजना परवान क्यों नहीं चढ़ी? मैंने कई ग्राम हाट परिसरों में ताले लगे देखे। पहले डवाकरा और फिर स्वयं सहायता समूहों के जरिए महिला सबलीकरण की जो कोशिश शुरू हुई, उससे छोटे स्तर पर उत्पादकइकाइयों का एक सुंदर काम जरूर हुआ। हालांकि ये इकाइयां वहीं सफल हुईं जहां उत्पाद की बिक्री की गारंटी थी। विफलता का प्रतिशत भी कम नहीं है; बावजूद इसके महिला सबलता के सरल रास्ते खोलने का श्रेय तो इन कार्यक्रमों को जाता ही है। आंध्र प्रदेश समेत दक्षिण के कई राज्यों में इनके सफल उदाहरण गौरवान्वित करने वाले हैं। ग्रामोद्योगों में कृषि कर्ज योजनाओं के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण कारीगरों को अपना उपक्रम खड़ा करने के लिए परोसी गई कर्ज योजना दलाली और मुफ्तखोरी का ही शिकार होकर रह गई है।
सच कहें तो हमारे देश में ग्रामोद्योगों को संरक्षण देने की कोई समग्र कोशिश आज भी दिखाई नहीं देती। अलबत्ता, भारत में दंगे ऐसी जगह जरूर ज्यादा हुए, जहां ग्रामो़द्योग थे। ग्रामोद्योगों का भट्ठा बैठाने की संगठित कोशिश भी कम नहीं हुई। बड़ी-बड़ी कंपनियां ऐसे छोटे-छोटे उत्पादों के कारोबार में उतर चुकी हैं। बाजार में अपनी जगह बनाने के लिए शुरू-शुरू में इन्होंने हर अनैतिक हथकंडा अपनाया। पहले लोकलुभावन चमक दिखाई। खुली चीजों को पैकबंद किया। अपनी आर्थिक हैसियत का लाभ उठाया। कीमतें सस्ती रखीं। छोटे कारोबारी कम पूंजी वाले होते हैं। बाहरी चमक और बिक्री-स्टंट ने उनकी कमर तोड़ दी। उनकी कमर टूटते ही बड़ी कंपनियां आज वही उत्पाद मनमानी कीमतों पर बेच रही हैं। कंपनियों के पैकबंद सामानों की नकल से बाजार अटे पड़े हैं। रही-सही कसर चीन के सस्ते घटिया उत्पादों ने पूरी कर दी है। अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र, फर्नीचर, चादर, खिलौने, जूते… ऐसे सैकड़ों उत्पादों पर निगाह डालिए, काफी कुछ ग्रामोद्योगों के हाथों से निकल गया है। इस गलाकाट प्रतियोगिता का नतीजा यह हुआ कि देशी-गंवई कारोबारी गुणवत्ता से समझौता करने को मजबूर हुए। खमियाजा उपभोक्ता भुगत रहा है। सेहत भी जा रही है और पैसा भी।
इस स्थिति से उबरने के लिए क्या जरूरी नहीं कि आज केंद्र के साथ-साथ सभी राज्य सरकारें भी अपनी शासकीय खरीद का एक सुनिश्चित प्रतिशत ग्रामोद्योगों से किए जाने को अनिवार्य बना लें? मेरे खयाल से शासन ही नहीं, बल्कि जिन भी संस्थानों, राजनीतिक दलों आदि के मन में देश का कौशल, पर्यावरण और बाहर जा रही पूंजी को बचाने का संकल्प हो, ग्रामीणों को गांवों में रोजगार देने का संकल्प हो, उन्हें चाहिए कि वे ऐसा करें। तब शायद गांवों में रोजगार का बड़ा माध्यम और अपने-अपने इलाके की शान रहे ये ग्रामोद्योग अपनी गुणवत्ता तथा अस्तित्व बचा पाएं।
नि:संदेह, आज गांवों की खरीद क्षमता बढ़ी है। इससे ललचाई बड़ी-बड़ी कंपनियां ग्रामीण बाजार के जरिए गांवों की जेब पर कब्जा करने को आतुर हैं। ऐसे में गांवों के अपने उत्पादों को अधिक कीमत दिलाने की चुनौतीबहुत बड़ी है। इसके लिए सिर्फ खरीद सुनिश्चित करने से काम चलने वाला नहीं। जरूरत है कि सरकार गुणवत्ता के मानदंडों का कड़ाई से पालन कराए।
ग्रामोद्योग उत्पादों की संगठित और सुचारुबिक्री की खातिर मजबूत सहकारी तंत्र बनाने के लिए पैसा और ईमानदारी दोनों दिखाए। कौशल विकास और क्षमता निर्माण के लिए ढांचागत व्यवस्था करे। ग्रामोद्योग को उत्पादों की बिक्री के लिए अन्यत्र न जाना पड़े। उन उत्पादों के प्रचार का जिम्मा सरकार को खुद उठाना चाहिए। जैसा कि सरकार बागवानी मिशन आदि के जरिए कई जगह वह पहले से कर रही है। गांवों में बड़ी-बड़ी फैक्टरियों के लिए जमीन अधिग्रहण करने के बजाय, ग्रामोद्योग आधारित परिसरों के विकास पर काम हो। स्थानीय बिक्री केंद्र बनें।
ऐेसे तमाम जरूरी कार्यों को अंजाम देने में एक अलग ग्रामोद्योग मंत्रालय और ग्रामोद्योग नीति मददगार हो सकते है। संकट से जूझती ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने का तो यह बड़ा काम होगा ही, साथ ही भारत की खेती और पर्यावरण को भी बड़ा लाभ होगा।