केंद्र की एनडीए सरकार ने अगर समय रहते यूरिया आयात का फैसला ले लिया होता तो किसानों को यूरिया उपलब्धता का संकट नहीं झेलना पड़ता। दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है जब देश में किसानों को रबी सीजन में यूरिया की उपलब्धता संकट का सामना करने के साथ ब्लैक में यूरिया खऱीदना पड़ा। बड़ी संख्या में देश के अधिकांश गेहूं उत्पादक किसानों को जरूरत के मुताबिक यूरिया नहीं मिल सका और उसका खामियाजा गेहूंं के उत्पादन में गिरावट के रूप में देखने को मिल सकता है। खास बात यह है कि इस साल यूरिया का आयात पिछले साल से अधिक हुआ। लेकिन आंकड़ों को करीब से देखने पर साफ होता है कि अधिकांश आयात देरी से हुआ।
इस समय देश में यूरिया का आयात कैनालाइज्ड है और अधिकृत सरकारी एजेंसियां ही यूरिया का आयात कर सकती हैं। इस समय यह कंपनियां हैं एसटीसी, एमएमटीसी और आईपीएल। रबी सीजन के पहले जहां सरकार को यूरिया आयात करने का फैसला ले लेना चाहिए था उसमें उसने ढील बरती। यह बात अलग है कि चालू साल में यूरिया का आयात पिछले साल (2013-14) से ज्यादा है लेकिन असली संकट आयात के देरी से होने के चलते पैदा हुआ।
चालू साल में अप्रैल से जनवरी के बीच 73.02 लाख टन यूरिया आयात हुआ जो इसके पहले साल इसी अवधि में 67.98 लाख टन रहा था। इसलिए सरकार का यह कहना कि इस सीजन में यूरिया की कमी नहीं थी, कुछ हद तक सच है। लेकिन सरकार यह नहीं बता रही है कि अधिकांश आयात देरी से हुआ। पहले पांच माह में केवल 17.37 लाख टन यूरिया आयात हुआ जबकि पिछले साल इसी अवधि में 43.82 लाख टन यूरिया का आयात हुआ था। यानि जरूरत का समय बीतने के बाद देश में आयात में तेजी आई। असल में अक्तूबर से देश में रबी सीजन में सबसे अधिक यूरिया की खपत वाली फसल गेहूं और सरसों की बुआई शुरू हो जाती है और फसल के पहले डेढ़ माह से दो माह के दौरान ही यूरिया की अधिकांश खपत होती है। यही वह समय था जब खपत वाले इलाकों में कम यूरिया पहुंच पाया। आयात के बाद डिस्ट्रिब्यूशन एक बड़ा काम है जिसके लिए काफी समय चाहिए। यहीं पर सरकार से चूक हुई और खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ा। सहारनपुर में नकुड़ के किसान रामकुमार कहते हैं कि इस तरह का यूरिया संकट पहले कभी नहीं देखा और ब्लैक में यूरिया खरीदना पड़ा। उनकी इसी बात समर्थन दिल्ली के बाहरी इलाके में एक बड़े फार्म के मालिक वी.एम. सिंह करते हुए कहते हैं कि सौ रुपये प्रति बैग अधिक देने पर यूरिया मिलना मुश्किल नहीं था और हमें काफी मुश्किल का सामना कर हरियाणा से यूरिया लाना पड़ा। मध्य प्रदेश और राजस्थान से भी यूरिया की कमी और ब्लैक की खबरें इस बार लगातार आई।
उर्वरक उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि देश में यूरिया की करीब 300 लाख टन सालाना की खपत में से करीब 220 लाख टन का उत्पादन देश में ही होता है।करीब 80 लाख टन के आयात ही जरूरत पड़ती है। लेकिन जिसतरह से घरेलू कंपनियों को सब्सिडी मिलने में देरी हुई उसके चलते कई संयंत्रों में उत्पादन ही बंद हो गया। आयात में देरी और घरेलू कंपनियों में उत्पादन में कमी ने मिलकर यह संकट पैदा किया। इस बात को यूरिया की बिक्री के आंकड़े भी साबित करते हैं। चालू साल में अप्रैल से दिसंबर के बीच यूरिया की बिक्री पिछले साल के मुकाबले करीब आठ लाख टन कम रही है।
वहीं कृषि मंत्रालय में उच्च पदस्थ एक अधिकारी का कहना है कि मंत्रालय हर सीजन के पहले उर्वरकों की आवश्यकता उर्वरक मंत्रालय को भेज देता है। इस साल के संकट का उपयोग उर्वरक मंत्रालय यूरिया आयात को डिकैनालाइज के लिए आधार बनाने के लिए भी कर सकता है और सरकारी कंपनियों के साथ निजी क्षेत्र को इसके आयात की इजाजत के लिए माहौल तैयार करने की कोशिश में है। इसके पीछे उर्वरक मंत्रालय के अधिकारियों का तर्क है कि आयात पर फैसले लेने की सरकारी प्रक्रिया लंबी है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी से फैसला लेने का फायदा बेहतर कीमत के रूप मिलता है। गैर यूरिया उर्वरकों का आयात नियंत्रण मुक्त है और उनकी कीमतों में इजाफे के बावजूद हाल के बरसों में कोई बड़ा उपलब्धता संकट पैदा नहीं हुआ है। इसके चलते यूरिया के डिकैनालाइज का केस मजबूत बन सकता है।