दिल्ली की हार के बाद बनेगा आर्थिक नीतियों में बदलाव का दबाव

नई दिल्ली. करीब 9 महीने पहले नरेंद्र मोदी ‘अच्छे दिनों’ के नारे और वादों के साथ पर केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए थे। इसके लिए उन्होंने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से गुजरात के विकास के मॉडल को देश के सामने रखकर लोगों को ‘अच्छे दिनों’ का सपना दिखाया था। लेकिन जिस तरह से दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को करारी हार मिली है, उससे साफ हो गया है कि अच्छे दिनों के वादे और गुजरात मॉडल में कुछ नहीं है, बल्कि खामियां कहीं ज्यादा है।


दिल्ली में बीजेपी 70 में से महज 3 सीट ही जीत पाई। गुजरात में विकास और बेहतर आर्थिक तरक्की के मॉडल को देश की राजनीति का केंद्र बनाने का वादा करने वाले पीएम नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली का चुनाव परिणाम उनकी नीतियों और खासतौर से आर्थिक नीतियों में बदलाव का दबाव बनाने वाला है।
वादों पर तेजी से अमल करने में चूकी सरकार


1.बिजनेस जगत का मानना है कि देश की जनता जिस तरह से चुनावी वादों पर अमल चाहती है, उस तेजी से नरेंद्र मोदी की सरकार अभी तक अमल नहीं कर पाई है। जनधन से लेकर डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर जैसे जिन जुमलों के साथ सरकार ने लोगों की बेहतरी के लिए कदम उठाने का दावा किया, उनमें से अधिकांश वही काम थे जो यूपीए सरकार ने शुरू किए थे। अभी तक आर्थिक मोर्चे पर कोई बड़ा नीतिगत फैसला मोदी सरकार ने नहीं किया है, जो लोगों की आर्थिक बेहतरी के लिए हो।


2. सरकार का पहला आम बजट यूपीए के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की नीतियों को ही आगे बढ़ाने वाला था।
3. दिलचस्प बात यह है कि कई ऐसे आर्थिक सलाहकार हैं, जो पिछली सरकार में भी थे और इस सरकार में भी हैं। इसलिए जो अंतर लोगों को दिखना चाहिए था, वह नहीं दिख सका।
4. भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर मोदी सरकार की ओर से लाए गए अध्‍यादेश के प्रति किसानों में नाराजगी दिल्‍ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के रूप में दिखाई दी है।


नतीजों के बाद सरकार को छवि बदलने को मजबूर होना पड़ सकता है


जानकार मानते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी और भाजपा के एजेंडे में जो फंडामेंटल अंतर था, वो ये कि नरेंद्र मोदी और भाजपा कह रहे थे कि कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलना चाहिए और हर सेवा व वस्तु की कीमत होती है, लेकिन यहां आम आदमी पार्टी ने सस्ती बिजली, सस्ता पानी, गरीबों को आवास और अनधिकृत कॉलोनियों में बेहतर नागरिक सुविधाओं से लेकर युवा वर्ग को लुभाने के लिए एजुकेशन लोन से लेकर कॉलेज खोलने तक के वादे किए। इसके अलावा, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन और महिला सुरक्षा उनका बड़ा एजेंडा था। जिस विश्वास के साथ आम आदमी पार्टी यह एंजेडा पेश कर रही थीस उस पर लोगों का भरोसा भी कायम हुआ। लेकिन यही काम भाजपा केंद्र सरकार में सत्ता में रहते हुए और देश के सबसे लोकप्रिय नेतृत्व के बावजूद कर पाने में नाकाम रही। इसके चलते उसने गरीब ही नहीं, मध्य वर्ग में भी अपना समर्थन खो दिया।


बजट में दिख सकताहै दिल्ली के नतीजों का असर


दिल्ली के नतीजों के एक दिन पहले जिस तरह से शेयर बाजार में गिरावट आई, उससे भी यह साफ हुआ कि अब सरकार उन नीतियों पर नहीं चल सकेगी, जिन्हें कॉरपोरेट जगत चाहता है।


ऐसे में, आगामी 28 फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली जब संसद में अगले वित्त वर्ष का बजट पेश करेंगे तो इस बात की पूरी संभावना है कि –
– सोशल सेक्टर, कृषि क्षेत्र और आम आदमी की आर्थिक बेहतरी पर ज्यादा जोर दिखे।


– यूरिया की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने, बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों में विनिवेश करने, रसोई गैस पर सब्सिडी घटाने जैसे फैसलों पर सरकार के कदम धीमे पड़ते दिख सकते हैं।


– जिस मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग को पार्टी अपना जनाधार मानकर चल रही थी, उसे एक बार फिर खुश करने के लिए आयकर में कुछ राहत देने की भी कोशिश की जा सकती है।
– ऐसा कर केंद्र सरकार न केवल दिल्ली चुनाव के नतीजे की भरपाई, बल्कि आने वाले दो साल के भीतर देश में राजनीतिक रूप से सबसे अहम माने जाने वाले दो राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव को देखकर भी बजट में फैसले ले सकती है।
कैसे बढ़ेगा केंद्र पर दबाव
– दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद केंद्र सरकार को अब शायद कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों से दूरी बनानी पड़ सकती है। साथ ही, सरकार पर सब्सिडी के सहारे लोगों को सुविधाएं देने का दबाव बनेगा।
– काले धन को देश में वापस लेने के नारे की जिस तरह से हवा निकली, उसने भाजपा को बैक फुट पर ही नहीं ला दिया, बल्कि वादाखिलाफ पार्टी की श्रेणी में खड़ा कर दिया। इससे लोगों में पार्टी की नीतियों को लेकर नाराजगी बढ़ी।
– महंगाई दर का आंकड़ा शून्य के करीब आ गया। इसका फायदा मिलने की बजाय जिस तरह से देश में किसानों और कृषि क्षेत्र की हालत बिगड़ने और किसानों की आत्महत्या की खबरें आईं, उसने सरकार को आम आदमी और किसानों के खिलाफ खड़ा कर दिया है।
– डीजल और पेट्रोल के दाम करने की तमाम कोशिश इसलिए नाकाम हो गई, क्योंकि जिस अनुपात में कच्चे तेल की कीमतें घटीं, उसके मुकाबले डीजल और पेट्रोल की कीमतों की कटौती बहुत कम थी। ये सारे फैसले केंद्र सरकार के खिलाफ गए।
दिल्ली के नतीजों से मिला सबक
दिल्ली के नतीजों से साफ है कि अब भाजपा के पास मोदी का वह तिलिस्म नहीं जो लोकसभा चुनावों में उनकी लहर से बना था। ऐसे में, अब फिस्कल डिस्प्लिन एजेंडा पीछे जाता है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि पॉपुलिज्म यानी लोक लुभावन नीतियां हों तो जनता आपके साथ हो जाती है। नहीं तो, वह आप यानी आम आदमी पार्टी जैसे संगठनों को तरजीह देने में नहीं हिचकेगी, दिल्ली के नतीजे का यही संदेश है।

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