क्या देश में फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए?

दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी कांड में दोषी ठहराए गए सुरिंदर कोली को मिली मौत की सज़ा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उम्रक़ैद में बदल दी तो ये सवाल फिर उठा की क्या फांसी की सज़ा उचित है। सुरिंदर कोली की दया याचिका राष्ट्रपति पहले ही ठुकरा चुके हैं और अगर सुप्रीम कोर्ट ने दो बार सज़ा टाली न होती तो अब तक उन्हें फांसी दी जा चुकी होती।

जिस शख्स की सज़ा पर सुप्रीम कोर्ट मुहर लगा चुका है उसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने किस आधार पर बदल दिया। युग मोहित चौधरी पेशे से वकील हैं और सुरिंदर कोली को मिली मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे हैं।

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वो कहते हैं, "पहला आधार ये कि दया याचिका पर फ़ैसला करने में बहुत ज़्यादा वक़्त लगा और सरकार के पास इस देरी का कोई उचित कारण नहीं है, दूसरा ये कि दया याचिका की प्रक्रिया भी उचित नहीं थी, तीसरे ये कि गृह सचिव की राय मांगी गई जबकि उसके पास इसका न्यायिक अधिकार नहीं था, चौथा ये कि राज्यपाल को ग़लत सलाह दी गई, इसके अलावा सुरिंदर को एकांतवास में रखा गया जो ग़ैरक़ानूनी था।"


सुरिंदर कोली को जिस घर में नौकर के रूप में काम करते हुए जुर्म का दोषी ठहराया गया है उसी घर के मालिक को रिहा किया जा चुका है। वरिष्ठ वकील उज्जवल निकम ने इस सवाल को गुनहगारों की चालबाज़ी और जांच एजेंसियों के पाले में डाल दिया।

उनका कहना है, "सबूत मिलना या नहीं मिलना ये जांच एजेंसी का काम है, कई बार कुछ गुनहगार ऐसे हैं जो जानते हैं कि सबूत कैसे मिटाना है, कुछ गुनहगार ऐसे हैं जो सबूत मिटा नहीं पाते। इसलिए हमारी ऐसी धारणा हो जाती है कि बड़े आदमी सबूत मिटा कर छूट जाते हैं, छोटे आदमी सबूत मिटा नहीं पाते।"

तो फिर ऐसे में जब कि इस बात की गुंजाइश है कि अपराधी छूट सकते हैं, क्या मौत की सज़ा पर रोक नहीं लगा देनी चाहिए। उज्जवल निकम इससे साफ़ इनकार करते हैं और उनकी मांग है कि इसके बजाय सज़ा पर अमल में तेज़ी लाई जानी चाहिए।


वे कहते हैं, "उन गुनहगारों को ही मौत की सज़ा दी जाती है जिनमें क्रूरता होती है, विकृति होती है लेकिन इसमें कुछ बदलाव लाना चाहिए। मैं चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट अगर अंतिम फ़ैसला देता है तो फिर दया याचिका के लिए तय समय होना चाहिए। तीन महीने के अंदर अगर दया याचिका पर सुनवाई न हो तो उसे नामंज़ूर मान लिया जाए और उसके एक महीने के भीतर सज़ा दे दी जाए।"

मौत की सज़ा ख़त्म करने की मांग करने वाले कहते हैं कि अकसर इसका निशाना आम लोग बनते हैं अमीरों को फांसी की सज़ा नहीं मिलती। इसके अलावा इसका डर भी अपराध को कम नहीं कर पा रहा।

कोई सबूत नहीं
चौधरी कहते हैं, "कोई ऐसा सबूत नहीं है कि मौत की सज़ा उम्र क़ैद से ज्यादा डराती हो। पंढेर के ख़िलाफ़ कोई चार्जशीट पेश नहीं की गई जो भी कार्रवाई हुई वो कोली के चार्जशीट के आधार परहुई तो पंढेर के ख़िलाफ़ पुलिस कोई सबूत पेश नहीं कर पाई। हर केस में यही होता है अमीर आदमी छूट जाता है। ग़रीब आदमी बली का बकरा बनता है।"

‘सज़ा दो, मौत नहीं’ के नारे अकसर सुनाई दे जाते हैं। दुनिया के ज़्यादातर देशों ने मौत की सज़ा पर पाबंदी लगा दी है। भारत उन गिने चुने देशों में है जहां फांसी की सज़ा दी जाती है लेकिन मौत की दलीलों पर उठ रहे सवालों ने इसे बदलने की बात करने वालों का मनोबल जरूर बढ़ा दिया है।
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(साभार बीबीसी और अमर उजाला)

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