मेरे एक प्रवासी भारतीय दोस्त ने करीब 50 करोड़ रुपये एक विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए भारत भेजे। लेकिन अचानक सरकारी नीतियां बदल गईं, सो निर्माण रुक गया, पर जब उसने अपने पैसे वापस भारत से निकलवाने की कोशिश की, तो मालूम हुआ कि वह इतना मुश्किल काम था कि पांच वर्ष गुजर गए और मामला अटका ही रहा। इतने में अर्थव्यवस्था में मंदी आ गई, रुपये की कीमत आधी हो गई और सारा नुकसान मेरे उस दोस्त ने भरा। गए वर्षों में इस तरह की ढेरों कहानियां दावोस में सुनने को मिलती थीं। तो क्या अब निवेशक वापस आने को तैयार हो जाएंगे? यह सवाल जब मैंने विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) के वार्षिक सम्मेलन में कुछ लोगों से पूछा, तो जवाब मिला कि अभी वह देख रहे हैं कि मोदी सरकार क्या करती है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री बातें भी अच्छी कर रहे हैं, पर अब भी डर है कि जिन आर्थिक सुधारों की सख्त जरूरत है, वह उतनी जल्दी नहीं हो रहे हैं, जितनी जल्दी होने चाहिए। इस वर्ष भारत के वित्त मंत्री भी यहां आए थे, साथ में महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी। लेकिन अभी तक भारत दुनिया की नजरों में वह जगह हासिल नहीं कर पाया है, जो कभी उसकी थी।
मुझे बीते वर्षों के कुछ सम्मेलन याद आते हैं, जब भारत का आकर्षण इतना था कि हम जहां जाते थे इस छोटे-से बर्फीले शहर में, तो कोई न कोई भारतीय चीज सामने आया करती थी। कभी हिंदी फिल्मों के गाने सुनाई देते थे किसी नाइट क्लब के अंदर से, तो कभी भारतीय खाने की महक ठंडी हवाओं में लहराती थी। सम्मेलन में जगह-जगह भारत में निवेश करने की चर्चा होती थी। यह सब बदलना शुरू हुआ, 2006 के बाद, जब सोनिया गांधी की सलाहकार समिति ने गरीबी हटाने के नाम पर ऐसी नीतियां थोंपी, जो हर तरह से निवेशकों के खिलाफ थीं। नतीजतन नोकिया ने पिछले साल तमिलनाडु स्थित अपने कारखाने को बंद करके 30,000 से ज्यादा लोगों को बेरोजगार कर दिया, जबकि वोडाफोन को सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ा भारत सरकार के खिलाफ।
इस वर्ष निवेशक आशावान नजर आए। लेकिन मनमोहन सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को जिस खाई मेंपहुंचा कर छोड़ा है, वह काफी गहरी है। अपने कई भाषणों में वित्त मंत्री ने खुद स्वीकार किया कि अभी तक वह देश को उस गहरी खाई से निकालने की ही कोशिश कर रहे हैं। मगर शायद दावोस की ठंडी बर्फीली हवाओं में आकर उन्हें समझ में आ गया होगा कि भारत के पास बहुत कम समय है, बहुत ही कम।