अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच परमाणु समझौते की घोषणा हुई। इसे भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतों के नजरिए से बेहद खास माना जा रहा है। हालांकि एक बड़ा सवाल ये जरूर उठ रहा है कि इस समझौते से किसको ज्यादा फायदा होगा? भारत को या फिर अमेरिका को। कहा ये भी जा रहा है कि इससे अमेरिकी कंपनियों को तत्काल फायदा होगा।
इस समझौते की नींव तो 2006 में पड़ गई थी, लेकिन किसी हादसे की सूरत में उत्तरदायित्व के सवाल पर यह समझौता आठ सालों तक अटका रहा। इस समझौते के लिए अपनी सरकार को दांव पर लगाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था, "परमाणु ऊर्जा की मुख्यधारा में आने की दशकों पुरानी मुश्किल दूर हो गई है।"
अब एक बडा इंश्योरेंस पूल बनाया जा रहा है, इससे किसी नए विधेयक की जरूरत नहीं होगी। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अगर कोई हादसा होता है तो आर्थिक मुआवजे की जिम्मेदारी इंश्योंरेंस कंपनी की होगी। विश्लेषकों का मानना है कि दोनों सरकारों ने इस दिशा में वो सब किया है जो वे कर सकते थे और अब आपूर्तिकर्ताओं या अमेरिकीकंपनियों की बारी है, जो भारत के साथ कारोबार करना चाहते हैं।
भारत ने ऊर्जा संबंधी जरूरतों को देखते हुए 2032 तक 63 हज़ार मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन को अपना लक्ष्य बनाया है, जो मौजूदा क्षमता से 14 गुना ज्यादा है। भारत के पास 22 आण्विक केंद्र है और अगले दो दशक में 40 ऐसे केंद्रों को तैयार करने की योजना है।
अमेरिकी आपूर्तिकर्ताओं को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। रूस भारत में 20 परमाणु रिएक्टर लगाने की योजना बना रहा है। फ्रांस भारत के पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र में छह परमाणु रिएक्टर बना रहा है। अमेरिका भी कम से कम आठ रिएक्टर बनाएगा।
ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि अमेरिकीकंपनियों को इस समझौते से क्या मिलेगा? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं, "उनके लिए ये आसान नहीं होगा, लागत एक अहम मसला होगा। आधुनिकि अमेरिकीपरमाणु रिएक्टर की लागत भारतीय परमाणु रिएक्टर की तुलना में कम से कम तीन गुनी ज़्यादा होती है। एक बात और है, अभी तक ऐसे रिएक्टर पूरी तरह तैयार भी नहीं हुए हैं।"
दो प्रमुख अमेरिकीआपूर्तिकर्ता कंपनियों जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस इलेक्ट्रिक कंपनी को गुजरात और आंध्र प्रदेश में रिएक्टर बनाने के लिए जमीन मिल चुकी है। वेस्टिंगहाउस ने इस समझौते की प्रशंसा की है। वहीं जनरल इलेक्ट्रिक ने कहा कि वे इस समझौती की जल्द ही समीक्षा करेंगे।
जाहिर है कि ये अमेरिकीकंपनियों के लिए अभी तस्वीर पूरी तरह साफ़ नहीं हुई है। अभी ये नहीं कहा जा सकता है कि आण्विक अनुबंध से उन्हें अरबों डॉलर की कमाई होगी। दूसरी ओर, भारत में सशक्त एंटी-न्यूक्लियर लॉबी है, जो 2011 में जापान के फुकुशिमा में हुए हादसे का जिक्र करते हुए परमाणु संयंत्रों को खतरनाक मानते हैं।
विवादास्पद भारतीय-रूसी परमाणु संयंत्र कुडनकुलम ने 2013 के बाद से बिजली का उत्पादन शुरू कर दिया है। अभी भी परमाणु ऊर्जा को भारत में पूरा समर्थन नहीं मिल रहा है और दूसरी ओर परमाणु ऊर्जा की तस्वीरभी पूरी तरह साफ़ नहीं है।
दुनिया भर के 30 देशों में 430 परमाणु संयंत्र काम कर रहे हैं जबकि 15 देशों में 72 संयंत्र अभी निर्माणाधीन हैं। नए परमाणु संयंत्रों के बनने के बाद भी परमाणु ऊर्जा का उत्पादन कम हो रहा है। इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) के मुताबिक मौजूदा समय में दुनिया भर की बिजली उत्पादन का महज 11 फ़ीसदी हिस्सा परमाणु संयंत्र पूरा कर रहे हैं, ये 1982 के बाद से सबसे कम है।
वहीं जर्मनी 2022 के बाद पूरी तरह से परमाणु संयंत्रों को बंद करने जा रहा है, वहीं चीन 2020 तक अपनी परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता को तीन गुना करना चाहता है।
इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी के मुताबिक एक ओर परमाणु ऊर्जा से उम्मीदें कम हो रही हैं तो दूसरी ओर कई देशों में इसे अपनाने की होड़ है। इस प्रक्रिया में आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक प्रभाव अपना असर डाल रहे हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं है।