पता चला कि किसी ने यह कह दिया था कि अगर वे ऐसा करेंगी, तो उनके बच्चे मरने से बच जाएंगे। ऐसा करने से उनमें से कई सड़क दुर्घटनाओं में घायल हो गईं या मारी गईं और यह क्रम बंद हुआ। लेकिन पीपल के पेड़ पर लाल धागा बांधना, व्रत रखना, ठंडे पानी में घंटों खड़ा रहना और देवी-देवताओं के कोप से बचने के लिए तालाबों तथा नदियों के किनारे ईंटों के छोटे मंडप बनाना-अपने बच्चों की जिंदगी बचाने के लिए भयभीत माताओं की तरफ से यह क्रम जारी है।
महिलाओं की पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा तमिलनाडु में पोंगल के अगले दिन मनाए जाने वाले ‘माट्टू पोंगल’ से चलता है। उनका मानना है कि समुद्र की लहरें शाम को मरे हुए उनके बच्चों की आत्माओं को तट के नजदीक पहुंचाएंगी। इसलिए वे सुबह उठकर खाने की वे तमाम चीजें पकाती हैं, जो उन बच्चों को अच्छी लगती थीं। यही नहीं, वे उनके लिए कपड़े बनवाकर भी ले जाती हैं। ये माताएं अपने बच्चों के लिए न जाने, क्या-क्या उपाय करती हैं। बस, वही नहीं करतीं, जिनके जरिये वे अपने बच्चों को मरने से बचा सकें।
हमारे देश में पांच साल से कम उम्र के जितने बच्चे मरते हैं, उतने दुनिया में (अफ्रीका के कुछ बहुत ही गरीब देशों को छोड़कर) कहीं नहीं मरते। इन बच्चों में से 13 फीसदी डायरिया से मरते हैं, क्योंकि उन्हें शौच के लिए खुले में बैठना पड़ता है, और उन्हें पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। कई सारे बच्चे निमोनिया, टायफाइड और उन अन्य बीमारियों के शिकार होते हैं, जिनका इलाज हो सकता है, पर इलाज उनकी पहुंच से बाहर है। और हजारों बच्चे तो भूख और कुपोषण से मर जाते हैं। इनके लिए देवी-देवताओं का प्रकोप नहीं, सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं।
केंद्र सरकार स्वास्थ्य पर देश की कुल आय का महज 1.4 प्रतिशत खर्च करती है। जनता से उसका वायदा है कि 2017 तक वह इसे बढ़ाकर 2.5 फीसदी कर देगी, लेकिन कुछ दिन पहले इसका ठीक उल्टा किया गया। एक तरफ नई सरकार ने आवश्यक दवाओं के दामों से नियंत्रण हटाकर कैंसर, टीबी इत्यादि की दवाओं के दामों को कई गुना बढ़ा दिया है, दूसरी तरफ उसने 2014-15 के स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में 20 प्रतिशत की कटौती का फैसला लिया है।
बरगद के पेड़ पर धागा बांधने या माट्टू पोंगल के दिन अपने बच्चों की आत्माओं का समुद्र की लहरों के साथ बहकर आने का इंतजार करने वाली माताओं की संख्या बढ़ेगी। काश!अगर सरकार की नीतियों को बदलने और स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में कटौतियों का विरोध करने के संघर्षों में उनकी संख्या बढ़ जाती, तो मरने वाले बच्चों की संख्या जरूर कम हो जाती।
-लेखिका माकपा की पूर्व सांसद हैं