शहरों में हमें यह लग सकता है कि रेडियो को अब सुनता ही कौन है, जो प्रधानमंत्री ने उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। टीवी और अखबार आज भी गांव-गांव नहीं पहुंच पाए हैं। अखबार बमुश्किल देश की 30 प्रतिशत आबादी तक पहुंचा है, तो टीवी की हालत इससे कुछ ही बेहतर है। जबकि रेडियो की पहुंच देश की 99 प्रतिशत आबादी तक है। फिर यह सबसे सस्ता है और अब तो जेब में रखने लायक सेट भी आ गए हैं, जिन्हें कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है।
मोदी ने यही देखा। वह देश के उन लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, जिन तक कोई और शासक नहीं पहुंचा था। रेडियो ने तो उनकी मन की बात सुनाई ही, अन्य निजी एफएम और टीवी चैनलों ने भी उसे सुनाया। विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर मोदी की बात को आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी प्रसारित किया गया। छह बड़े शहरों में ही 66 फीसदी आबादी ने उसे सुना। उन्होंने खादी अपनाने की बात कही, तो खादी की बिक्री में 150 फीसदी का उछाल आ गया। हैरत की बात यह है कि रेडियो के महत्व को हमारे शासकों ने क्यों नहीं समझा?
हालांकि हर नए माध्यम के आविष्कार के साथ पुराने माध्यम की चमक फीकी पड़ती है। पर अमूमन यह तब होता है, जब पुराने माध्यम की सारी खूबियां नया माध्यम अपना लेता है और उसे पहले से भी बेहतर ढंग से परोसता है। हमारे देश में चूंकि रेडियो का बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण में था, खासकर खबरों और समसामयिक कार्यक्रमों वाला, लिहाजा वह नहीं बदला। इसलिए वह पिछड़ता चला गया। घरों से रेडियो-ट्रांजिस्टर गायब होने लगे। उसकी इज्जत एफएम ने रखी जरूर, पर वह एकदम दूसरे छोर पर चला गया। पश्चिमी देशों में रेडियो ने टीवी के सामने समर्पण नहीं किया, बल्कि जरूरी परिवर्तन करके अपनी जगह बरकरार रखी। समाचार और सामयिक घटनाक्रमों के मामले में भी वह श्रोताओं की पसंद बना रहा। अमेरिका में ऐसे भी चैनल हैं, जो बिना विज्ञापन के, सिर्फ जनता के चंदे पर चल रहे हैं।
मोदी ने रेडियो में बेशक प्राण फूंके हैं, लेकिन बहुत काम होना बाकी है। रेडियो को अपनी विश्वसनीयता वापस अर्जित करनी होगी। हमारे यहां एफएम का तीसरा चरण जल्दी ही अमल में आने वाला है। 839 नए एफएम स्टेशन खुलने हैं। खबरें और सामयिक कार्यक्रम सुनाने की छूट भी सरकार उन्हें देना चाहती है। यह वाकई बड़ी क्रांति होगी। पर इसके साथ ही आकाशवाणी को भी अपनी पुरानी केंचुल उतार फेंकनी होगी। रेडियो के कंटेंट में आमूल बदलाव की जरूरत है। मोदी या केजरीवाल उसकेमहत्व को रेखांकित कर सकते हैं, मगर असल बदलाव तो उसके अपने भीतर से आना है।
-लेखक पत्रकारिता के प्राध्यापक हैं