गौरतलब है कि भारत में पहले ही न्यूनतम शासन की स्थिति निर्मित है, जबकि नागरिकों के कल्याण व सुरक्षा के लिए एक ऊर्जावान, जनोन्मुखी शासकीय तंत्र का उपस्थित होना बहुत जरूरी है। दूसरी तरफ भारत का प्रशासनिक तंत्र कार्यकुशलता के अभाव और भ्रष्टाचार का पर्याय बना हुआ है। भारत में केवल जनसंख्या और राजनीतिक दलों की तादाद ही जरूरत से ज्यादा है, शेष सभी क्षेत्रों में हम अभावों से जूझ रहे हैं। योजना आयोग के आंकड़ों और अन्य रिपोर्टों की मानें तो आबादी के मान से अमेरिका की तुलना में भारत में महज बीस फीसद सरकारी कर्मचारी कार्यरत हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में जहां प्रति एक लाख नागरिकों पर 1622.8 शासकीय सेवक हैं, वहीं अमेरिका में यह संख्या 7681 है। प्रति एक लाख नागरिकों के लिए जहां केंद्र सरकार के 257 कर्मचारी तैनात हैं, वहीं यूएस फेडरल गवर्नमेंट ने 840 कर्मचारी तैनात कर रखे हैं। पुलिस व्यवस्था की हालत तो और गई-बीती है। भारत में जहां एक लाख नागरिकों की सुरक्षा के लिए मात्र 130 पुलिसकर्मी हैं, वहीं सिंगापुर में इतनी ही आबादी के लिए कुल 752 पुलिसकर्मी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
अब बात करें सरकार की। देश में चाहे जिस राजनीतिक दल या गठबंधन की सरकार रही हो, सुशासन हमारे लिए एक दूर का सपना ही बना रहा है। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही का बोलबाला बना हुआ है। वर्ष 2012 और 2013 में भारत यूएन ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में निचले क्रम पर रहते हुए 135वें नंबर पर आया था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में भी भारत की रैंकिंग निरंतर खराब बताई जाती रही है। वर्ष 2014 में जरूर इस स्थिति में थोड़ा सुधार आया है।
हालत यह है कि एक तरफ जहां ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों को सताए जाने की खबरें निरंतर सामने आती रहती हैं, वहीं यादव सिंह सरीखे भ्रष्ट अधिकारी सफलता की सीढ़ियां चढ़ते रहते हैं। यह विडंबना ही है कि यादव सिंह, जिसकी कि इंजीनियरिंग की डिग्री की प्रामाणिकता भी संदिग्ध है, को यूपी की दो भिन्न् और प्रतिद्वंद्वी सरकारों ने संरक्षण दिया और मुख्य कार्यकारी अभियंता के पद पर बिठा दिया। उत्तर प्रदेश राज्य की हजारों करोड़ की परियोजनाओं का भाग्य-निर्धारण इस भ्रष्ट व्यक्ति के हाथ में था। आरोप लगाए जा रहे हैं कि यादव सिंह बसपा और सपा दोनों ही धुर विरोधी पार्टियों की ओर से घूस लेता था। सवाल उठता है कि आखिर राजनीतिक दल भ्रष्टों को प्रश्रय क्यों देते हैं?पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाम सरकार में पुलिस प्रमुख रह चुके एक अधिकारी बताते हैं कि ‘जब मुझसे कुछ संकटग्रस्त क्षेत्रों के लिए अच्छे और ईमानदार अधिकारियों के नाम बताने को कहा गया और जब मैंने ऐसा ही किया तो गृह मंत्रालय में बैठे मेरे राजनीतिक आका ने यह कहकर मुझे टका-सा जवाब दे दिया कि मेरे द्वारा सुझाए गए नाम ‘जरूरत-से ज्यादा ईमानदार" हैं और इसलिए वे सरकार के लिए काम के नहीं हैं।"
यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि भारत के अधिकतर राजनीतिक दल ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर सहज नहीं हो पाते हैं, फिर चाहे बात दुर्गाशक्ति नागपाल की हो या अशोक खेमका की। किरन बेदी, नजरुल इस्लाम और दमयंती सेन जैसे पुलिस अधिकारियों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिन्हें राजनीतिक वर्ग के रोष का शिकार होना पड़ा था। जीआर खैरनार का नाम आज भी बहुतों को याद होगा, जिन्होंने मुंबई महानगर पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार से खिन्न् होकर उपायुक्त पद से इस्तीफा दे दिया था और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए थे।
यूपीए के दस साल के कार्यकाल में तो जैसे नेता-नौकरशाह-बिजनेसमैन का गठजोड़ अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया था, नतीजतन एक के बाद एक बड़े घोटाले सामने आए। भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय की यही पृष्ठभूमि थी। मोदी मतदाताओं को विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि वे उन्हें एक भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन दे सकेंगे। ‘न्यूनतम शासन अधिकतम प्रशासन" का नारा भी उन्होंने ही दिया था। जब उन्होंने 44 मंत्रियों के समूह के साथ अपनी पारी की शुरुआत की थी, तब यह नारा चरितार्थ होता नजर आया था, लेकिन अब मंत्रिमंडलीय विस्तार के बाद मोदी मंत्रिमंडल को न्यूनतम शासन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। मोदी सरकार में अब 65 मंत्री हैं और इंदिरा गांधी (59), मोरारजी देसाई (44), राजीव गांधी (51) और नरसिंह राव (56) की तुलना में उनका मंत्रिमंडल पहले ही संख्या में बड़ा हो चुका है। शिवसेना से समझौता होने के बाद केंद्र सरकार में दो और मंत्रियों के लिए भी जगह बनाई जा सकती है। पर यह चिंता की बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अधिकतम प्रशासन को संभव बनाने के लिए वास्तव में अधिकतम शासन की ही दरकार है।
दरअसल, लचर प्रशासन की जड़ में जो चीज है, वह है सरकारी अधिकारियों और कर्मचरियों में पैठा सुरक्षा और स्थायित्व का भाव। इस भरोसे को डिगाए बिना उनसे दक्षतापूर्ण काम करने की उम्मीद करना मुश्किल लगता है। निजी क्षेत्र में तो सेवाकाल की कोई निश्चित अवधि नहीं होती और यही कारण है कि इस क्षेत्र में काम कर रहे लोग और कुछ नहीं तो अपनी नौकरी बचाने के मकसद से ही दक्षता और पारदर्शिता के साथ काम करते हैं। क्यों न सरकारी कर्मचारियों का कार्यकाल भी अधिक से अधिक 15 वर्षों की अवधि का कर दिया जाए? इसके बाद भी अगर वे सेवाएं देना जारी रखना चाहते हैं तो क्यों न उनके समक्ष एक उच्चतर श्रेणी की यूपीएससी परीक्षा पास करने की बाध्यता निर्मित की जाए? दूसरी तरफ शिक्षाविदों, उद्योग जगत के पेशेवरों और गैरसरकारी संगठनों के प्रतिष्ठित लोगों को भीसरकारमें सेवाएं देने का मौका दिया जाए। एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी भी यही कहते हैं कि ‘हमें इस आईएएस-आईएफएस संस्कृति को खत्म करना होगा कि एक बार यूपीएससी पास कर लेने के बाद आप जीवनभर के लिए निश्चिंत हो जाएं। लोकसेवा में तमाम पदोन्न्तियां केवल कार्य की गुणवत्ता के आधार पर होनी चाहिए और जो अच्छा काम नहीं कर पाएं, उनकी सेवाएं समाप्त कर दी जानी चाहिए।"
सरकारी कर्मचारियों को काम करने के लिए प्रेरित करना एक बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री ने बीड़ा उठाया है, लेकिन अगर वे अपने भगीरथी प्रयास में सफल भी रहे तो केवल केंद्र की कार्यसंस्कृति में ही बदलाव ला सकेंगे। राज्यों की नौकरशाही तब भी अपनी परिपाटी पर ही बनी रहेगी। तब भी सुशासन दिवस मनाए जाने का एक प्रतीकात्मक महत्व है, क्योंकि आज देश को सुशासन की सबसे ज्यादा जरूरत है।
(लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉर्पोरेट एडिटर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं