एक सीमित अर्थ में इस कदम को भारतीय सुप्रीम कोर्ट का एक और आविष्कार माना जा सकता है। बेशक इसे न्यायिक सक्रियता की परिघटना से जोड़कर देखा जाएगा, जिसमें अदालतें अपनी तरफ से जनहित या संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिए दखल देती रही हैं। इस क्रम में गुजरे दशकों के दौरान न्यायपालिका ने अपने कार्य एवं अधिकार-क्षेत्र का खासा विस्तार किया है।
अगर विशुद्ध संवैधानिक व्यवस्था के नजरिए से देखें तो न्यायपालिका का काम विवादों का निपटारा और कानूनों पर उनकी भावना के अनुरूप अमल सुनिश्चित कराना रखा गया था। मगर बाद में अपने निर्णयों से सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली। इस बीच उसने जनहित याचिका का आविष्कार किया, जिससे किसी मामले में तीसरे पक्ष द्वारा हस्तक्षेप संभव हो गया। आगे पर्यावरण कानूनों पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए कोर्ट ने विशेष प्रयास किए। अब ‘सामाजिक न्याय" के लिए ऐसा किया गया है।
स्पष्टत: कोर्ट का उद्देश्य अच्छा है। बहरहाल, मुमकिन है कि कुछ हलकों में इसे न्यायपालिका की अतिशय सक्रियता बताया जाए। अतीत में यह प्रश्न उठाया गया है कि जिन मुद्दों या समस्याओं का संबंध व्यापक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से है, क्या उनका प्रभावी न्यायिक समाधान हो सकता है? ऐसे सवाल इसलिए उठते हैं, क्योंकि कुछ मामलों में सदिच्छा से किए गए न्यायपालिका के हस्तक्षेप ठोस परिणाम नहीं दे सके हैं। उदाहरण के लिए पुलिस सुधारों को ले सकते हैं। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने आठ साल पहले व्यापक दिशा-निर्देश दिए थे। मगर सरकारों ने अनिच्छा दिखाई और न्यायालय अपने आदेश पर पूरा अमल नहीं करा सका। क्या भूख, कुपोषण, जातीय या लैंगिक शोषण आदि से जुड़े मामलों में अदालती आदेश से समाज की सूरत बदल सकती है?
फिलहाल कोर्ट के पास ‘सामाजिक न्याय" से जुड़े जो लगभग 200 मामले लंबित हैं, उनमें अधिकांश इसी प्रकृति के हैं। खबरों के मुताबिक शुरुआत करने के लिए इनमें से 65 मामलों की पहचान की गई है। इन पर कैसी प्रगति होती है, इस पर निगाहें लगी रहेंगी। बहरहाल, यह अवश्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने समाज की अंतर्चेतना के रक्षक अथवा वाहक की भूमिका अपनाने की दिशा में एक और बड़ा कदम उठाया है।
(संपादकीय, नई दुनिया)