वास्तव में ‘मेक इन इंडिया" की सफलता पर बहुत कुछ निर्भर करने जा रहा है। यदि यह अभियान सफल रहा तो भारत एक ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग हब बन जाएगा और हम एक बड़ा निर्यातक देश बन जाएंगे। नवनियुक्त वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने आईसीएमएआई से कहा कि अगर ‘मेक इन इंडिया" कार्यक्रम सफल रहा तो आगामी दस वर्षों में देश का जीडीपी तीन गुना बढ़कर पांच लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच जाएगा। पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) के मान से तो हम 15 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका के समकक्ष भी बन सकते हैं। सिन्हा ने तीन बिंदुओं को रेखांकित किया : उचित लागत, गुणवत्तापूर्ण लेखा-परीक्षण और लेखा-पुस्तिकाओं का ईमानदारीपूर्वक रखरखाव।
देश में वस्तुओं और सेवाओं का घरेलू बाजार जितना बड़ा है, उसको देखते हुए इसमें कोई शक नहीं कि भारत में मैन्युफेक्चरिंग को लेकर प्रधानमंत्री का दृष्टिकोण बेहद व्यावहारिक है। यह न केवल घरेलू खपत, बल्कि अतिरिक्त उत्पादन की स्थिति में निर्यात के मामले में भी दूरदर्शितापूर्ण है, क्योंकि कोई भी देश महज एक आयात-केंद्रित अर्थव्यवस्था बनकर विकास नहीं कर सकता। बहरहाल, ‘मेक इन इंडिया" सिर्फ और सिर्फ तभी कामयाब हो सकेगा, जब उसके तहत निर्मित उत्पादों का मूल्य और गुणवत्ता आयातित उत्पादों के समकक्ष ही हो। यह कहना जितना आसान है, इसे कर दिखाना उतना ही मुश्किल। अंदरूनी और बाहरी दोनों ही स्तरों पर बड़ी चुनौतियां हैं। देश के उद्योग क्षेत्र को इसके लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होगा।
भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का सदस्य है। इसके नियमों के तहत हमें आयात दरों में ज्यादा रद्दोबदल करने की सुविधा नहीं है। भारत में मौजूद स्थानीय और वैश्विक मैन्युफेक्चरर्स के सामने द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व्यापार अनुबंधों के तहत उत्पाद-शुल्क संबंधी लिए गए निर्णय बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के तौर पर, हो सकता है कि भारत में स्थित किसी चीनी मैन्युफेक्चरर को चीन में निर्मित उत्पादों से हीकड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़े। डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत तथाकथित एंटी-डंपिंग की कार्रवाई को उचित ठहराना सरल नहीं है। यही कारण है कि ‘मेक इन इंडिया" को सफल बनाने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम यह है कि घरेलू मैन्युफेक्चरर किसी उत्पाद के मूल्य और गुणवत्ता संबंधी प्रतिस्पर्धा का सामना किस तरह कर पाते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ”मेक इन इंडिया" हमारी प्रतिबद्धता है। यह हमारी तरफ से सभी के लिए एक निमंत्रण भी है कि वे आएं और भारत को एक नया ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग हब बनाएं। इसके लिए हमसे जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे।" मोदी ने यह कह तो दिया, लेकिन इसे हकीकत के धरातल पर उतारने के लिए हमारे जनप्रतिनिधियों, लोकसेवकों और उद्यमियों को अपने रवैये में आमूलचूल बदलाव लाना पड़ेगा। अभी तो इस बात को लेकर ही हमारे पास ज्यादा जानकारी नहीं है कि भारत के जीडीपी का कितना हिस्सा पूरी तरह से भारतीय है, यानी भारत का कितना जीडीपी आयात-निर्धारित है। मिसाल के तौर पर भारत के जीडीपी में तेल का योगदान मुख्यत: आयात-केंद्रित है। जीडीपी में बिजली क्षेत्र का जो योगदान है, वह भी मुख्यत: आयातित कोयले पर निर्भर है। यही हाल ऑटोमोबाइल और कैपिटल गुड्स सेक्टर का भी है, जिसका जीडीपी में योगदान आयात-केंद्रित ही है। बढ़ता व्यापारिक घाटा भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोरी को रेखांकित कर रहा है। चालू खाते के घाटे में इजाफा भारतीय मुद्रा की विनिमय दर को प्रभावित कर रहा है। वित्त वर्ष 2012-13 के दौरान रुपया जितनी तेजी से गिरा था, उसने भी भारतीय अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई। विश्व बैंक की गणनाओं के मुताबिक भारत का जीडीपी वर्ष 2013-14 में 1.880 से घटकर 1.877 लाख करोड़ डॉलर रह गया।
प्रधानमंत्री की अर्थव्यवस्था संबंधी फिलॉस्फी केवल तभी कारगर साबित हो सकेगी, जब भारत मैन्युफेक्चरिंग के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की राह को गंभीरतापूर्वक अपनाए। अफसोस की बात है कि फिलहाल नेता, नौकरशाह और उद्यमी तीनों ही इसके लिए तैयार नजर नहीं आते। वे येन-केन-प्रकारेण कार्य करने की अपनी पुरानी आदत से ग्रस्त हैं। यह सोचना बड़ा अजीब लगता है कि जब प्रधानमंत्री कार्यालय और केंद्रीय वित्त व वाणिज्य मंत्रालय देश को निर्माण क्षेत्र की एक बड़ी ताकत बनाने का सपना देख रहे हैं, तब उद्योग क्षेत्र का एक धड़ा और प्रशासनिक व्यवस्था में बैठे उनके हिमायती इस बेकार बहस में उलझे हैं कि अनिवार्य लागत लेखा-परीक्षण और उनकी रिपोर्टों के रखरखाव की क्या उपयोगिता है। आखिरकार वित्त मंत्री अरुण जेटली को इसमें हस्तक्षेप करने को मजबूर होना पड़ता है। इस तरह से देश एक आर्थिक महाशक्ति कैसे बनेगा?
ऐसा लगता है कि उद्योग और अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में ऐसे न्यस्त स्वार्थ पैठे हुए हैं, जो अपने पुरातनपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं। राजनीतिक संरक्षण के इतने सालों के बाद उनमें काली कमाई, कर चोरी, जालसाजी, हवाला लेन-देन करने, टैक्स हेवन में फर्जी बैंक खाते बनाने और अपनी बेमियादी संपत्ति को रियल एस्टेट, सोना आदि में खपाने की प्रवृत्तियां विकसित हो गई हैं। देश के धनाढ्य वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस तरह की भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त रहता है। यूपीए-2 के पांच सालकेकार्यकाल के दौरान भारत ने विदेशों से इतना सोना आयात किया, जितना पिछले 30 साल में नहीं किया था। इस अवधि में रियल एस्टेट क्षेत्र द्वारा भी इतना निर्माण किया गया, जितना पिछले 25 वर्षों में नहीं किया गया था। यदि हम चाहते हैं कि ‘मेक इन इंडिया" एक लफ्फाजी नहीं, हकीकत बने तो इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी इन संकीर्ण प्रवृत्तियों को त्यागकर एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करना होगा।
(लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉर्पोरेट एडिटर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं)