दरअसल रोजगार विहीन विकास ही असली चुनौती है। पिछले दशक में भारत की वार्षिक विकास दर औसतन सात फीसदी रही है। यहां तक कि 2005 से 2009 के बीच जब औसत विकास दर 8.5 फीसदी से 9.3 फीसदी रही, योजना आयोग के अध्ययन के मुताबिक 14 करोड़ लोगों ने खेती छोड़ दी। अमूमन जो लोग खेती छोड़ते हैं, वे विनिर्माण के क्षेत्र में काम करते हैं, लेकिन विनिर्माण के क्षेत्र में भी 5.3 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। तो खेती छोड़ने वाले ये 14 करोड़ लोग, जिनके बारे में माना जाता है कि वे शहरों की तरफ कूच कर गए, आखिर कहां गए? मेरा मानना है कि इनमें से ज्यादातर लोग गांव में ही भूमिहीन खेत मजदूर बन गए।
इसकी पुष्टि नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों से भी होती है। एनएसएसओ के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में भारत में श्रमिकों की संख्या 44.0 से 48.4 करोड़ के बीच थी। इनमें रोज काम तलाशने वाले और साल के कुछ वक्त मजदूरी करने वाले, दोनों तरह के श्रमिक थे। जबकि रोजगार की तलाश करने वाले करीब 2.5 करोड़ लोग बिल्कुल बेरोजगार थे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात जो यह सर्वे हमें बताता है, वह यह कि रोजगार पाने वालों में मात्र 18 फीसदी श्रमिकों को ही नियमित मजदूरी मिलती थी।
हाल ही में क्रिसिल के एक अध्ययन में बताया गया है कि वर्ष 2007 से 3.7 करोड़ से ज्यादा किसान खेती छोड़कर दिहाड़ी मजदूरी करने शहरों की तरफ पलायन कर गए। लेकिन वर्ष 2012 से 2014 के बीच जब अर्थव्यवस्था में सुस्ती छाई रही, तो करीब 1.5 करोड़ लोग रोजगार के अवसरों की कमी के चलते अपने गांव लौट आए। यानी उनसे दिहाड़ी मजदूरी का अवसर भी छिन गया।
पिछले दस वर्षों में जब विकास दर औसतन सात फीसदी से ज्यादा रही, तो मात्र 1.5 करोड़ रोजगार का सृजन हो पाया। जिस देश में हर वर्ष एक करोड़ से ज्यादा लोग रोजगार की कतार में खड़े होते हैं, वहां उच्च विकास दर के मद्देनजर 15 करोड़ से ज्यादा रोजगार का सृजन होना चाहिए था। पर मात्र दस फीसदी लोगों को ही नौकरी मिल सकी।
लिहाजा सीआईआई का अनुमान गलत है।इसका उद्देश सरकार से ज्यादा रियायतें एवं सुविधाएं पाना है। पिछले दस वर्षों के दौरान जब विकास दर औसतन सात फीसदी वार्षिक रही, तो उद्योग घरानों को 36 लाख करोड़ रुपये की कर रियायतें दी गईं। यह राशि उद्योग जगत को इसलिए दी गई कि वह औद्योगिक गतिविधियां और निर्यात बढ़ाएगा, साथ ही ज्यादा रोजगार पैदा करेगा। दिलचस्प तथ्य है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच जब भारत की विकास दर काफी ऊंची थी, तो औद्योगिक उत्पादन गिरकर नवंबर, 2009 में शून्य से 7.20 फीसदी नीचे चला गया था। मौजूदा वर्ष में अक्तूबर में समाप्त तिमाही में औद्योगिक विकास दर मात्र 2.5 फीसदी रही, जबकि विनिर्माण क्षेत्र की हालत बेहद खराब है। वर्ष 2013-14 में विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर एक वर्ष पहले के 1.1 फीसदी के मुकाबले घटकर 0.2 फीसदी पर आ गई। निर्यात की कहानी भी उत्साहजनक नहीं है। इंजीनियरिंग सामान, रत्न, आभूषण और दवाइयों के निर्यात में कमी की वजह से विगत अक्तूबर तक निर्यात पांच फीसदी तक घट गया।
यदि औद्योगिक उत्पादन सुस्त रहा, तो उम्मीद के मुताबिक निर्यात नहीं बढ़ेगा और उच्च विकास दर रोजगार पैदा करने में विफल रहेगी। पूछा जाना चाहिए कि औद्योगिक जगत को जो 36 लाख करोड़ रुपये की रियायत दी गई, वह कहां है। अगर यह राशि गरीबी उन्मूलन पर खर्च की जाती, तो देश से अगले 72 वर्षों के लिए गरीबी का सफाया हो जाता। यह गलत प्राथमिकताएं चुनने का मामला है। साफ है कि उद्योग जगत रोजगार निर्माण की बात इसलिए करता है, ताकि उसे सरकार से इन्फ्रास्ट्रक्चर और भारी वित्तीय सहयोग मिल सके।
भारत के विकास का सबसे उज्ज्वल पक्ष वास्तव में कृषि क्षेत्र है। 2013-14 में किसानों ने 26 करोड़ 44 लाख टन खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन किया। तिलहन का उत्पादन 4.8 फीसदी वृद्धि के साथ 3.45 करोड़ टन के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर रहा, जबकि मक्के का उत्पादन 8.52 फीसदी वृद्धि के साथ 2.42 करोड़ टन रहा। दालों का उत्पादन अब तक का सर्वाधिक 1.96 करोड़ टन रहा। कपास का उत्पादन भी रिकॉर्ड उच्च स्तर पर रहा।
लेकिन आश्चर्यजनक है कि कृषि क्षेत्र की ही उपेक्षा हो रही है। नहीं भूलना चाहिए कि कृषि सबसे बड़ा नियोक्ता है, जहां करीब 52 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोजगार मिल रहा है। प्राइसवाटर हाउस रिपोर्ट को इस पर केंद्रित होना चाहिए कि किसानों को ज्यादा वित्तीय सहायता देकर किस तरह कृषि क्षेत्र को लाभकारी बनाया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में निजी व सार्वजनिक निवेश बढ़ाए जाने की भारी जरूरत है। इससे शहरों की तरफ पलायन घटेगा और गांवों में स्थायी रोजगार भी पैदा होंगे।