मगर तेल की कीमतों में इस भारी कटौती के पीछे एक दिलचस्प और लंबी लड़ाई है, जो दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश सऊदी अरब लड़ रहा है। उसने एक साथ कई मोर्चों पर जंग छेड़ रखी है, तेल की कीमतें आश्चर्यजनक रूप से कम रखकर। सऊदी अरब अमेरिका को तेल का निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है और वह भारत-चीन जैसी महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं को भी बड़े पैमाने पर तेल बेचता है। उसका तेल की कीमतों को इस तरह से गिरने देना अकारण नहीं है। इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है, जिसे दूर से समझना मुश्किल है। लेकिन धीरे-धीरे इस रहस्य की परतें खुल रही हैं और सारी बातें आईने की तरह साफ हो रही हैं।
असल में, सऊदी अरब तेल की कीमतें कम रखकर एक साथ दो शिकार करना चाहता है। पहले तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी ईरान को पस्त करना चाहता है। सुन्नी बहुल मुस्लिम देश सऊदी अरब शिया बहुल ईरान को तगड़ी आर्थिक चोट पहुंचाना चाहता है। अपने परमाणु कार्यक्रम के कारण ईरान कई तरह के अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध झेल रहा है। वह एक सीमा से अधिक कच्चा तेल भी नहीं बेच सकता। इतना ही नहीं, उसे डॉलर में भी भुगतान करने पर मनाही है। चूंकि उसकी आमदनी का 80 फीसदी धन कच्चे तेल की निर्यात से आता है, इसलिए उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। यदि तेल की कीमतें नीचे जाएंगी, तो उसका सीधा असर उसकी जीडीपी पर पड़ेगा। इसके विपरीत, सऊदी अरब के पास दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल भंडार है और उसके पास विदेशी मुद्रा का भी बड़ा भंडार है। वह अपनी आय के लिए सिर्फ कच्चे तेल पर निर्भर नहीं है। उसकी आय का एक बड़ा स्रोत हज भी है। पूरी दुनिया के लाखों मुसलमान हज करने के लिए उसके दो पवित्र शहरों मक्का-मदीना में आते हैं। उनसे सऊदी अरब को भारी कमाई हो जाती है। इसलिए वह तेल से होने वाली कमाई में कटौती बर्दाश्त कर सकता है।
लेकिन सऊदी अरब और उसके कुछ सहयोगी देश इससे भी बड़ी लड़ाई उन अमेरिकी तेल कंपनियों से लड़ रहे हैं, जो शेल टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर तेल का उत्पादन कर रहे हैं। अमेरिका में इस टेक्नोलॉजी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है और इसकी मदद से डकोटा और टेक्सास इलाकेमें चट्टानों के नीचे से तेल निकाला जाता है। इस पद्धति से तेल निकालने में वहां की कई कंपनियां लगी हैं और वे सस्ती दरों पर तेल बेच रही हैं। साथ ही कई और कंपनियां तेल उत्पादन क्षेत्र में उतरने की तैयारी में हैं। सऊदी अरब नहीं चाहता कि इतनी सारी कंपनियां इस तरह से वहां कच्चे तेल का उत्पादन करें। अगर ये कंपनियां इसमें सफल हो गईं, तो 2019 तक अमेरिका कच्चे तेल का निर्यातक बन जाएगा। यह सऊदी अरब के तेल व्यवसाय के भविष्य के लिए बड़ा खतरा है। अमेरिका दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है और वह सऊदी अरब का सबसे बड़ा ग्राहक भी है। सऊदी अरब की समस्या है कि उसका दूसरा बड़ा ग्राहक चीन अब उससे उतना तेल नहीं ले रहा है, क्योंकि वह औद्योगिक मंदी के करीब पहुंच रहा है और वहां तेल की खपत घट रही है। चीन के अलावा जापान और जर्मनी में भी तेल की खपत घटी है। ज्यादातर देश ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की तलाश में जुट गए हैं और उसमें काफी पैसा खर्च कर रहे हैं। जाहिर है, यह सऊदी अरब के लिए चिंता का विषय है, इसलिए वह तेल की कीमतों को गिरने दे रहा है। संभव है कि वह तेल की कीमत को घटाकर 60 डॉलर प्रति बैरल तक ले जाए, क्योंकि उतनी कम लागत में तो अमेरिकी कंपनियां तेल का उत्पादन कर ही नहीं सकतीं। अगर इतनी कम लागत में वे तेल का उत्पादन करेंगी, तो उनका कारोबार चौपट हो जाएगा और सऊदी अरब की मंशा भी यही है। गिरती हुई कीमतों से कनाडा को भी धक्का पहुंचेगा, जो अमेरिका को तेल बेचने वाला एक महत्वपूर्ण देश है।
हालांकि सऊदी अरब के लिए यह इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि नाइजीरिया, लीबिया, अल्जीरिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी और वहां इस्लामी जिहादियों के हौसले बुलंद हो जाएंगे। सऊदी अरब यह बिल्कुल नहीं चाहेगा कि इस तरह के तत्वों को बढ़ावा मिले। यह उसकी अपनी सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। फिर भी उसने एक बड़ा जोखिम उठाया है और एक दीर्घकालीन नीति के तहत तेल की कीमतों को घटने दिया है। इससे तेल का निर्यात करने वाले अन्य देशों के लिए बड़ा संकट पैदा हो गया है। कच्चे तेल का बड़ा उत्पादक रूस भी मुश्किल में है, क्योंकि उसे अपनी मुद्रा रूबल की कीमत बनाए रखने के लिए अरबों डॉलर खर्च करना पड़ रहा है और सरकार के पास खर्च करने के लिए धन की भारी कमी होती जा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि सऊदी अरब तेल के इस खेल को कितने दिनों तक खेल सकता है। फिलहाल तेल आयात करने वाले देश खुश हैं, क्योंकि इससे उनकी अर्थव्यवस्था को राहत मिल रही है।