स्वास्थ्यमंत्री रहते हुए हर्षवर्धन ने सभी राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों की बैठक बुला कर सबके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के मकसद से राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य बीमा सुविधा, सभी स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों में विभिन्न दवाएं और जांच उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा था। फिर यह कैसे हुआ कि उन्हीं के कार्यकाल में जीवनरक्षक और आवश्यक दवाओं की कीमतें नियंत्रित करने वाले एनपीपीए के निर्देशों पर पानी फिर गया? क्या हर्षवर्धन की नहीं चली थी, या इसमें भी उनकी सहमति थी? जो हो, हर्षवर्धन से स्वास्थ्य मंत्रालय ले लिया गया और उनकी जगह मंत्रालय की कमान जेपी नड््डा को सौंप दी गई, जिन्होंने एम्स के सतर्कता अधिकारी को हटाने के लिए हर्षवर्धन को सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी। एनपीपीए के निर्देशों को पलीता लगाने और एम्स के सतर्कता अधिकारी को हटाने से जाहिर है कि सरकार न तो दवाओं की कीमतों को बेलगाम मुनाफाखोरी से बचाने के लिए गंभीर है न चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार दूर करने को लेकर। तमाम अध्ययन बताते हैं कि दवा कंपनियां किस तरह भ्रष्ट तरीके से बाजार में अपनी दवाओं की पहुंच बनाती हैं। दवाओं की कीमतें उन पर आने वाली लागत से कई सौ गुना तक अधिक होती हैं। जबकि बहुत सारे परिवारों को इलाज के लिए अपनी जमीन-जायदाद बेचने या कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। फिर भी सरकार को अगर दवा कंपनियों पर निगरानी रखने वाले तंत्र को मजबूत बनाने के बजाय उसके पर कतरनाज्यादा जरूरी लगे तो समझा जा सकता है कि वह मरीजों के प्रति कितनी संवेदनशील है। क्या इसी तरह सार्वभौम चिकित्सा अधिकार सुनिश्चित किया जाएगा?
(साभार- संपादकीय, जनसत्ता)