ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में लक्ष्य रखा गया था कि भारत में आठवीं कक्षा तक जाते-जाते स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के 50 प्रतिशत को 20 प्रतिशत तक नीचे ले आया जाए। लेकिन आज भी कोई 40 प्रतिशत बच्चे दर्जा आठ से आगे का स्कूल नहीं देख पाते हैं। यह जरूर है कि स्कूल न जाने के लिए मचल रही जिस बच्ची का जिक्र ऊपर किया गया है, उस सामाजिक-आर्थिक हालात के बच्चे आमतौर पर कक्षा आठ के बाद के ड्रॉप आउट की श्रेणी में नहीं आते हैं। सरकारी दस्तावेजें कहती हैं कि स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों में अधिकांश गरीब, उपेक्षित जाति और समाज के बच्चे-बच्चियां होती हैं। बेशक ऐसे भी उदाहरण हैं कि इन्हीं स्थितियों में पढ़ने वाले कुछ बच्चे कॉलेज तक और उससे बहुत आगे तक भी गए। पर औसत बच्चों के लिए आज भी स्कूल ऐसी गतिविधि है, जो उनकी अपेक्षा के अनुरूप या मन के मुताबिक नहीं है। वहां पढ़ाई जा रही पुस्तकों में उसे कुछ भी ऐसा नहीं मिलता, जो उनके जीवन में काम आए।
जब बच्चा चाहता है कि वह गाय को करीब जाकर देखे, तब स्कूल में वह खिड़की बंद कर दी जाती है, जिससे बाहर झांककर वह गाय को साक्षात देखता है। उसे गाय काले बोर्ड पर सफेद लकीरों और शब्दों में पढ़ाई जाती है। रामायण की जो कहानी बच्चे को कई सालों में समझ नहीं आती, वह उसे रामलीला देखने पर रट जाती है। ठेठ गांव के बच्चों को पढ़ाया जाता है कि ‘अ’ से ‘अनार।’ न तो उनके इलाके में अनार होता है और न ही उसने कभी देखा या चखा है। सारा गांव, जिसे गन्ना कहता है, उसे ईख पढ़ाया जाता है। रंग-आकृति-अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेश ही बेहद नीरस और अनमना-सा होता है। इस बीच उसे डॉक्टर, इंजीनियर, कलक्टर, पायलट जैसी कई चीजें रटा दी जाती हैं और दिमाग में बैठा दिया जाता है कि पढ़-लिखकर इनमें से कुछ नहीं बना, तो उसका जीवन बेकार है। यही मानसिकता, कस्बाई और शहरी गरीब बच्चों को घर से भागने, नशा करने व झूठ बोलने को प्रेरित करती है, जबकि गांव के बच्चे स्कूल छोड़ देना ही श्रेयस्कर समझते हैं।
(येलेखक के अपने विचार हैं)