छत्तीसगढ़ वाइल्ड लाइफ सोसाइटी के अध्यक्ष व पक्षी विशेषज्ञ डॉ अरूण कुमार भरोस ने बताया कि गिद्घ किसी जीवित प्राणी का शिकार नहीं करते, वे मरे हुए मवेशियों को खाकर उदरपूर्ति करते हैं। पशुपालक आमतौर पर बीमार मवेशियों को दर्द निवारक डायक्लोफेनिक और केटोप्रोफेन नामक दवा खिलाते हैं। यह विषाक्त दवाएं मवेशियों की कोशिकाओं को नष्ट कर इन्हें सुस्त कर देती हैं।
इन दवाइयों के सेवन के बाद मरने वाले मवेशियों के दूषित मांस को खाने के कारण गिद्घों की प्रजनन क्षमता तो खत्म हुई ही, लगातार मृत्यु के चलते इनकी संख्या भी कम होते चली गई। लिहाजा अब यह विलुप्तप्राय पक्षियों की श्रेणी में आ गया है।
प्राणी विज्ञानी प्रोफेसर सुशील दत्ता बताते हैं कि बस्तर के अधिकांश ग्रामीण भी पुराने मवेशियों को लंबे समय से सीमावर्ती राज्य के मांस दलालों को बेचते आ रहे हैं। यहां भी भोजन की कमी ही गिद्घों की मौत के लिए जिम्मेदार है इसलिए बस्तर में भी गिद्घ नजर नहीं आ रहे हैं।
पशु चिकित्सा अधिकारी डॉ पीआरएस नेगी लंबे समय से बस्तर में गिद्घों की घटती संख्या पर काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि बस्तर में आखिरी बार 8-10 गिद्घों को वर्ष 2011 में जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर ग्राम बाग मोहलई में देखा गया था। उन्होंने गिद्घ को बचाने औेर संरक्षित करने के उद्देश्य से दो हजार रूपए पुरस्कार देने की घोषणा की है।