इस घटना ने दिल्ली को भी हिला दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कल तक छत्तीसगढ़ के प्रभारी रहे केन्द्रीय स्वस्थ्य मंत्री जेपी नड्डा तक ने रायपुर फोन कर मामले की जानकारी ली है। एम्स दिल्ली से चिकित्सकों का एक दल बिलासपुर पहुंच रहा है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने तो इसे मानवीय आपदा तक कह दिया है।
बड़ा सवाल यह है कि बस्तर से लेकर बिलासपुर तक इस राज्य में क्या गरीब ऐसी ही मौत के लिए अभिशप्त हैं? कभी सरकारी शिविरों में उनकी आंखें फोड़ दी जाएं, कभी मुनाफाखोर निजी अस्पताल उनकी कोख छीन लें ! बस्तर में गंदा पानी पीकर लोग जानवरों की तरह बेइलाज मर जाते हैं, लेकिन सरकारी सिस्टम के कानों में जूं भी नहीं रेंगती। उल्टे यह तर्क दिया जाता है कि वहां नक्सली हैं, इसलिए इलाज संभव नहीं है !
वर्ष 2011 से 2013 के बीच इसी राज्य में बालोद, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा और बागबाहरा में अलग-अलग हुए मोतियाबिंद शिविरों में इलाज के लिए पहुंचे 70 से ज्यादा गरीबों की आंखें फूट गईं! जांच के नाम पर कुछ पर कार्रवाई और फिर लीपापोती ही हुई।
पता नहीं कितने निजी अस्पतालों ने गरीब को मिलने वाली चिकित्सा बीमा की राशि हड़पने के लिए हजारों महिलाओं के गर्भाशय निकल दिए ..एकाध नर्सिंग होम संचालक को जेल हुई, बाकी लीपापोती हो गई, क्योंकि आरोपी ताकतवर हैं और सरकारी सिस्टम संवेदनहीन ! बस्तर या बिलासपुर के गांव की क्या बात करें, राजधानी रायपुर में पीलिया से 25 से ज्यादा लोग मर गए, क्योंकि उनके घरों में पीने का गन्दा पानी आ रहा था। यहां बहुत-से लोग मलेरिया और डेंगू से मर गए, क्योंकि गन्दगी के कारण यह शहर अब घूरे-सा नजर आता है!
नसबंदी शिविर के बाद हुई इन मौतों के ताजा मामलों में कुछ चिकित्सक निलंबित किए गए हैं। उन पर मामले भी दर्ज हुए हैं। मुख्यमंत्री ने इस बार कड़ी कार्रवाई करते हुए स्वास्थ्य संचालक को पद से हटा दिया है। विपक्ष भी पूरे गुस्से का इजहार कर अपनी भूमिका निभा रहा है।
पर क्या इस बात की गारंटी कोई दे रहा है कि फिर कोई गरीब इस व्यवस्था की क्रूरता का शिकार नहीं होगा? क्या कोई इस बात की गारंटी दे रहा है कि बस्तर के दूरस्थ इलाकों में रहने वाले आदिवासी से लेकर बिलासपुर के गांव पेंडारी तक अब ना कोई गरीब गन्दा पानी पीकर बेइलाज मरेगा, न किसी शिविर में किसी गरीब की आंखें फूटेंगी, ना चिकित्सा बीमा की राशि हड़पने के लिए कोई निजी अस्पताल किसी कम उम्र की महिला की कोख सूनी कर सकेगा और ना ही किसी नसबंदी शिविर के बाद इस राष्ट्रीय कार्यक्रम को सफल बनाने निकली कोई
बेगुनाह ऐसी मौतमारी जाएगी या रायपुर जैसे शहर में पीने का पानी इतना साफ तो होगा कि कोई पीलिया से ना मरे या शहरों की सफाई के लिए रखे गए सैकड़ों करोड़ रुपयों से इतनी सफाई तो हो ही जाएगी कि आम आदमी मलेरिया और डेंगू से बेमौत ना मरे?
इस व्यवस्था का सच यह है कि ऐसी गारंटी कोई नहीं देगा, क्योंकि पूरी व्यवस्था को मालूम है कि यह महज लापरवाही का किस्सा नहीं है। यह गरीब के खिलाफ खड़ा एक ऐसा तंत्र है, जो उसके इलाज की राशि के बूते फलफूल रहा है। यह अधिकारियों, नेताओं और उनके रिश्तेदारों, सप्लायरों का ऐसा तंत्र है, जिसकी पूरी रुचि इलाज से ज्यादा खरीदी और सप्लाई में है! घटिया दवाओं और घटिया उपकरणों की खरीदी के लिए तो स्वास्थ्य विभाग कुख्यात है।
इस राज्य का स्वास्थ्य तंत्र सिर्फ बीमार नहीं है, बल्कि एक भ्रष्ट गिरोह के कब्जे में भी है। ये एक ऐसा ताकतवर गिरोह है, जिसका राज्य बनने के बाद से आज तक बाल भी बांका नहीं हुआ। सरकारी अस्पतालों की बदहाली
इस बात का प्रमाण है कि राज्य का स्वास्थ्य बजट आम आदमी के इलाज के नाम पर किन जेबों में जा रहा है। पीएमटी के जरिए मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का फर्जीवाड़ा इस बात का गवाह है कि राज्य में चिकित्सा का पूरा ढांचा ही किन ताकतवर भ्रष्ट लोगों के हाथों में है।
पर बात इतनी भी नहीं है। आखिर इतने बड़े-बड़े काण्ड जिस विभाग में हो गए हों, उसका हाल बदहाल ही क्यों है? आखिर इस बात में किसकी रुचि है कि इलाज का सरकारी तंत्र बदनाम ही रहे? वो सरकारी तंत्र, जो गरीब आम आदमी को नि:शुल्क या बहुत कम खर्चे पर स्वास्थ्य सुविधाएं देता है, लेकिन सरकारी तंत्र बदनाम होगा तो सुधार के नाम पर शायद निजी की घुसपैठ भी आसान होगी ! ऐसी कोशिशें हुईं हैं और अभी खत्म भी नहीं हुई हैं।
एक उदाहरण रायपुर के डीके अस्पताल का है। राज्य बनने के बाद यहां मंत्रालय लगता था। मंत्रालय नया रायपुर में शिफ्ट हुआ तो सरकार ने एक सकारात्मक फैसला किया कि डीके भवन को अस्पताल ही बनाया जाएगा। नईदुनिया ने मुहिम चलाई कि यहां महिलाओं और बच्चों का सरकारी अस्पताल खोला जाए। ऐसा अस्पताल पूरे राज्य में नहीं है। आधी आबादी का इलाज आंबेडकर अस्पताल में एक वार्ड के भरोसे है।
बिलासपुर जिले के नसबंदी शिविर की ताजा घटना ने महिलाओं-बच्चों के अलग सरकारी अस्पताल की जरूरत को फिर एक तार्किक आधार दिया है। लेकिन डीके अस्पताल को सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल ही बनाने का फैसला हुआ है ! यह विडम्बना ही है। आज भी शायद एक अवसर है, जब सरकार अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करे और डीके अस्पताल को महिलाओं और बच्चों का अस्पताल बनाने का फैसला करे। सारे आंकड़े, सारी घटनाएं इस जरूरत का ही ठोस आधार हैं।
सफाई से लेकर इलाज तक आज इस राज्य की जनता दो हिस्सों में बंटी नजर आती है। एक हिस्सा वो है, जिसके घरों के आसपास मच्छर भी फटकने से घबराते हैं। इस जनता को सुपर स्पेशिलिटी इलाज ही चाहिए और दूसरा हिस्सा वो आमआदमीऔर आम महिला है, जो मछरों के काटने से मरने को मजबूर है, जो गन्दा पानी पीकर मरने को मजबूर है, जिसकी कोख कुछ लोगों के लिए एक स्मार्ट कार्ड से निकलने वाला रुपया भर है, जो ऐसे सरकारी शिविरों में अपनी आंखें फुड़वाने को या दम तोड़ने को मजबूर है! इस तस्वीर को बदलने की जरूरत है। चिकित्सा व्यवस्था को सच में जनहितैषी बनाने की जरूरत है। आज यह महज भ्रष्टजन हितैषी नजर आती है।