ग्रामीण विकास का आदर्श सपना- संजय गुप्‍त

चंद दिनों पहले तक वाराणसी के जयापुर गांव से सारा देश अपरिचित था, लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र का यह गांव देश भर में चर्चा में है। केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी और ग्रामीण विकास की दृष्टि से मील का पत्थर मानी जाने वाली आदर्श ग्राम विकास योजना के तहत इस गांव का चयन होते ही वह देश का विशिष्ट गांव बन गया है। स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने इस योजना की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए सभी सांसदों से अपेक्षा की थी कि वे अपने संसदीय क्षेत्र के एक-एक गांव का चयन करें और उसे इस तरीके से विकसित करें कि वह आसपास के सभी गांवों के लिए मिसाल बन जाए।

आदर्श गांव योजना से क्षेत्र के अन्य गांवों में भी विकास की प्रेरणा उत्पन्‍न होने का भरोसा इसलिए है, क्योंकि किसी भी तरह का आदर्श स्थापित हो तो वह सबसे ज्यादा प्रभाव अपने आसपास ही डालता है। वैसे भी जब एक क्षेत्र में कोई गांव आदर्श रूप से विकसित होगा तो अन्य गांवों के लोग संबंधित जन प्रतिनिधि पर वैसा ही विकास अपने यहां कराने के लिए दबाव डालेंगे और धीरे-धीरे पूरा क्षेत्र ही विकास की राह पर चल निकलेगा।

ग्रामीण विकास का सपना साकार करने में यह आदर्श ग्राम योजना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, लेकिन यह तब होगा जब उस पर प्रधानमंत्री की भावना के अनुरूप अमल होगा। मोदी ने सांसदों के साथ-साथ विधायकों से भी अपने निर्वाचन क्षेत्र के एक-एक गांव का चयन करने का अनुरोध किया है, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं दिख रही है।

अपने देश की एक बड़ी समस्या यह है कि शासन की योजना के मुताबिक प्रशासनिक तंत्र सक्रियता प्रदर्शित नहीं करता और इस कारण बड़ी से बड़ी योजना भी अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल हो जाती है। कभी-कभी तो लगता है कि शीर्ष नौकरशाही की विकास और व्यवस्था सुधार में दिलचस्पी ही नहीं रह गई है।

शायद इसी कारण ज्यादातर सरकारी योजनाएं धरातल पर पहुंचते-पहुंचते अपनी राह से भटक जाती हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि योजनाओं पर अमल के लिए जो व्यवस्थाएं की जाती हैं, उनमें छेद तलाशकर अपनी जेबें भरने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नौकरशाही के उदासीन रवैये के कारण अधिकांश योजनाएं धन की बर्बादी साबित होती हैं।

एक समय यह अनुमान लगाया गया था कि बुनियादी ढांचे के विकास के लिए जारी किए जाने वाले धन का 85 प्रतिशत भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। प्रधानमंत्री ने यह बिल्कुल सही कहा कि आदर्श ग्राम योजना पर अमल करते हुए सांसदों को जमीनी स्तर पर व्यवस्थाओं को देखना चाहिए, क्योंकि ऐसा करके ही वे विकास योजनाओं को आगे बढ़ाने के साथ व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

जयापुर में उन्होंने यह कहा भी कि ग्रामीण क्षेत्रों में बुजुर्गों से उनके अनुभव के आधार पर जो सीख मिलती है, वह बड़े-बड़े अफसरों से नहीं मिल पाती। उनके इस कथन में ग्रामीण जीवन के संदर्भ में उनकी अपनी समझ छिपी है। हमारे तमाम सांसद-विधायकगांव-गरीब की बातें तो खूब करते हैं, लेकिन वे वहां की समस्याओं को सुलझाने के लिए तत्पर नहीं होते। दरअसल वे गांव-गरीबों को महज एक वोट बैंक की तरह देखते हैं।

जब वे गांवों को गोद लेंगे और प्रधानमंत्री उनसे वहां हो रहे कामों की प्रगति रिपोर्ट मांगेंगे तो सोच भी बदलेगी और हालात भी। गांवों के विकास में पंचायतों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है, लेकिन यह निराशाजनक है कि पंचायती राज के बड़े-बड़े दावे किए जाने के बावजूद अभी तक पंचायतों की कोई सार्थक भूमिका सामने नहीं आ सकी है। जिस तरह गांवों में पंचायतें अपना काम सही तरह नहीं कर पा रही हैं, उसी तरह शहरों में स्थानीय निकाय भी अपने बुनियादी दायित्वों को पूरा करने में नाकाम नजर आते हैं।

बेहतर हो कि पंचायतों और जिला पंचायतों के साथ-साथ नगर निगम, नगर महापालिका जैसे स्थानीय निकायों की भूमिका, कामकाज, दायित्व पर नए सिरे से विचार हो। इसी तरह नागरिकों को अपने कर्तव्यों के बारे में भी सोचना होगा। सभी को इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि प्रमंत्री बार-बार जनभागीदारी के जरिये देश को बदलने की बात कह रहे हैं। कोई सरकार कितनी भी समर्थ हो, वह सब कुछ नहीं कर सकती और भारत सरीखे विशाल देश में तो यह और भी मुश्किल है।

यह मुश्किल आसान हो सकती है, अगर आम लोग अपनी छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान आपस में मिलकर करने का बीड़ा उठाएं। इस क्रम में उन्हें सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों की निगरानी भी करनी चाहिए और भागीदारी भी। उन्हें अपने हक के लिए सांसदों-विधायकों से सवाल-जवाब करने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए।

भारत में विकास के संदर्भ में एक बड़ी समस्या यह भी है कि अक्सर राजनीतिक मतभेद इस हद तक हावी हो जाते हैं कि बड़ी से बड़ी योजना पर भी अमल मुश्किल हो जाता है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि राज्य सरकारें केवल इस कारण केंद्र के कार्यक्रमों में सहयोग करने से इनकार करें कि उसकी कमान विरोधी राजनीतिक दल के हाथ में है। मौजूदा परिस्थितियों में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का गांव होने के बावजूद जयापुर तब तक आदर्श रूप में विकसित नहीं हो सकता, जब तक उत्तर प्रदेश की सपा सरकार इस योजना के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण न प्रदर्शित करे।

भले ही राजनीतिक मतभेदों के कारण फिलहाल आदर्श ग्राम विकास योजना पर सही तरह से अमल में संदेह नजर आ रहा हो, लेकिन जब जन प्रतिनिधि और आमजन गांवों की हालत सुधारने के लिए जुटेंगे तो संदेह के बादल स्वत: छंट जाएंगे। जब सांसद गांवों को चिह्नित कर उसके विकास की ईमानदारी से चिंता करेंगे तो वे समस्याएं सतह पर आएंगी ही, जिनसे हमारे गांवों को जूझना पड़ रहा है। केंद्र सरकार गांवों में सीधे दखल नहीं दे सकती और उसे देना भी नहीं चाहिए, लेकिन सांसद अपने गांव क्षेत्र के विकास के लिए जिलाधिकारी से लेकर अन्य शीर्ष अधिकारियों के पास जा सकता है और जरूरी कामों को करवा सकता है।

सांसदों अथवा केंद्रीय मंत्रियों के ग्रामीण विकास से इस तरह प्रतिबद्धता के साथ जुड़ने का एक सकारात्मक परिणाम यह भी होगाकिवे करीब से यह जान-समझ सकेंगे कि कौन-सा कानून गांवों के विकास में बाधक बन रहा है अथवा किस व्यवस्था के कारण सामाजिक विकास अवरुद्ध हो रहा है। इस तरह की सच्चाई से परिचित होने के बाद ही शासन की नई सोच विकसित हो सकती है।

नि:संदेह एक प्रधानमंत्री गांवों की गलियों अथवा नालियों को ठीक कराने का काम अपने स्तर पर नहीं कर सकता, लेकिन यह मोदी की विशिष्ट कार्यशैली है कि वे किसी न किसी रूप में खुद को समाज के हर वर्ग से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। शायद यही कारण है कि पूरा देश उनकी ओर आशा भरी निगाह से देख रहा है। खुद मोदी ने अपने वाराणसी दौरे में लोगों को यह भरोसा दिलाया कि वे बातें नहीं करेंगे, बल्कि काम करके दिखाएंगे।

उनका यह आत्मविश्वास अकारण नहीं है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होंने देश की ज्यादातर समस्याओं को विस्तार से समझा है और उनके निराकरण की रूपरेखा तैयार की है। इस रूपरेखा में जन भागीदारी भी शामिल है, इस तथ्य को सारे देश को समझना होगा।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

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