काले धन की मरीचिका में हम – विजय संघवी

हमारा देश एक मरीचिका का पीछा कर रहा है, जिसका नाम है विदेशों में जमा काला धन। अगर काले धन का शगूफा बार-बार छेड़ा जाता है तो उसका कारण यह है कि इससे राजनेताओं को दूसरे मामलों से देशवासियों का ध्यान भटकाने का मौका मिल जाता है, अफसरों को देश में मौजूद काली संपदा को नजरअंदाज करने की सुविधा मिल जाती है, न्यायपालिका को सरकार को फटकार लगाने का अवसर मिल जाता है और मीडिया के हाथों भी एक गर्मागर्म खबर लग जाती है।

इसके बावजूद दशकों से काला धन वहीं का वहीं बना हुआ है, क्योंकि किस धन को काला कहें और किसको सफेद, इस बारे में भी अनेक मतभेद बने हुए हैं। मतभेद इस पर भी हैं कि विदेशों में जमा काले धन से देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हो रहा है। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजीव गांधी की सरकार में वित्त मंत्री थे तो उन्होंने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को ही उलट देने की कोशिश की थी। सरकारी एजेंसियां चाहे जिस पर आरोप मढ़ देती थीं पर आरोपों को साबित करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हुआ करती थी।

हां, जिस व्यक्ति पर आरोप लगाया गया है, उसे जरूर अपने निर्दोष होने के सबूत जुटाना पड़ते थे। पश्चिम में ऐसा नहीं होता। वहां पर आरोप लगाने वाले को पुख्ता तरीके से अपने आरोपों को साबित करना होता है, नहीं तो उल्टे उसे मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ता है। काले धन के मामले में हकीकत यह है कि बैंक भी नहीं बता सकते कि उनके खातों में जमा कौन-सा पैसा काला है और कौनसा सफेद।

भारत के उलट विकसित देशों के बैंकों के पास इसके पूरे अधिकार होते हैं कि वे गोपनीयता कायम रखें, लेकिन हमारे यहां बैंकों को सरकारी एजेंसियों की मांग पर अपने खातों के ब्योरों का खुलासा करना पड़ता है। वर्ष 2011 में एक जर्मन बैंक ने एचएसबीसी बैंक की जेनेवा शाखा के खाताधारकों के नामों की सूची भारत को सौंपी थी। यह सवाल अभी तक अपनी जगह कायम है कि यह सूची उस तक कैसे पहुंची और उसने उसे भारत सरकार को क्यों सौंपा।

ऐसी आम धारणा बहुत समय से बनी हुई थी कि अनेक भारतीयों के स्विस बैंकों में खाते हैं, लेकिन किसी के पास इसका कोई सबूत नहीं था। यह सूची पहला ठोस सबूत था, लेकिन भारत सरकार के हाथ सूचनाएं साझा करने संबंधी विभिन्न संधियों के चलते बंधे हुए थे। वह खाताधारकों का दोष साबित किए बिना उनके नाम उजागर नहीं कर सकती थी।

लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने इस बात को मुद्दा बनाकर बहुत शोर मचाया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने भी यही पाया कि अंतरराष्ट्रीय संधियों को तोड़कर नाम उजागर करना उसके बूते की बात नहीं होगी। सर्वोच्च अदालत द्वारा फटकार लगाए जाने के बाद सरकार ने उसे 627 खाताधारकों के नाम सौंपे, जिन्हें अदालत ने एसआईटी को सौंप दिया।

एसआईटी जिन नतीजों पर पहुंची, वे भी कम दिलचस्प नहीं हैं। उसके मुताबिक इनमें से 289 खातों में कोई पैसा नहीं है, जबकि 122 नाम रिपीट हुए हैं। लेकिन कई लोगइस बात पर अचरज कर रहे हैं कि आखिर विभिन्न् एजेंसियां इस नतीजे पर कैसे पहुंची थीं कि कम से कम छह लाख करोड़ रुपए विदेशी खातों में जमा है। ऐसा जान पड़ता है कि ये तमाम आंकड़े अटकलों से बढ़कर नहीं हैं। वरिष्ठ स्तंभकार कुलदीप नैयर का कहना है कि वर्ष 1990 में जर्मनी के राजदूत ने उन्हें यही आंकड़ा बताया था।

तब वे ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे। तब से अनेक सरकारी-गैरसरकारी एजेंसियां विदेशों में जमा भारतीय धन के अलग-अलग आंकड़े पेश कर चुकी हैं। गोपनीयता से जुड़े स्विस कानूनों और संहिताओं के कारण राजनेता काले धन के मामले में ऐहतियात बरत सकते थे, लेकिन वे अपने विरोधी पक्ष को कठघरे में खड़ा करने का मौका भी नहीं गंवाना चाहते थे।

वे इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकते थे कि भारत में उन पर कोई मानहानि का मुकदमा नहीं ठोकेगा। भारत में किसी पर भी आर्थिक अनियमितता का आरोप जड़ा जा सकता है। यह इसलिए एक खतरनाक प्रवृत्ति है, क्योंकि अगर बाद में आरोपी ने स्वयं को निर्दोष साबित कर भी दिया, तो इस आरोप से उसकी साख को जो बट्टा लगा, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती है। देश में आज ऐसा कोई कानून नहीं है, जो इस तरह मनमानीपूर्ण तरीके से आरोप लगाने की प्रवृत्ति पर रोक लगा सके।

इसका यह मतलब नहीं है कि भारतीयों ने विदेशी बैंकों में अपनी काली कमाई जमा नहीं कर रखी है। लेकिन हमारे यहां तो काले धन को भारत में लाने का श्रेय लेने की जैसे होड़ मची हुई है, फिर चाहे वे राजनेता हों, सामाजिक कार्यकर्ता हों, आध्यात्मिक गुरु हों या फिर न्यायपालिका ही क्यों न हो।

आज देश की न्याय-प्रणाली में सुधार की सख्त दरकार है और 1.34 करोड़ मुकदमे लंबित पड़े हुए हैं, लेकिन उसने भी काले धन के मामले में ज्यादा दिलचस्पी लेते हुए सरकार को फटकार लगाई। सरकार ने उसे खाताधारकों के नामों की सूची सौंपी तो उसने उसे पुन: एसआईटी को दे दिया, क्योंकि इस तरह के मामलों में कोई भी कार्रवाई करने के अधिकार ही न्यायपालिका के पास नहीं हैं।

दूसरी तरफ हमारी जांच एजेंसियों का अब तक का रिकॉर्ड भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। वर्ष 1974 में समस्तीपुर में हुए एक बम धमाके में तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की मौत हो गई थी, लेकिन इस मामले की जांच आज लगभग 40 साल बाद भी पूरी नहीं हो सकी है। चारा घोटाले और रक्षा सौदों में हुए घोटालों की जांच में देरी भी हमारे सामने एक नजीर की तरह मौजूद है। जहां देश के दूसरे क्षेत्रों में नई परिपाटियां कायम हो रही हैं, वहीं पुलिस व्यवस्था अब भी खस्ताहाल है। इन तमाम हालात के मद्देनजर काले धन के मामले में सफलता तभी मिलेगी, जब विदेशी एजेंसियां मदद का हाथ बढ़ाएंगी।

इस दरमियान काले धन का शोर मचाकर देश में पहले ही मौजूद बेमियादी संपत्ति से ध्यान भटकाया जाता रहेगा, जिसका कि खुला मुजाहिरा चुनावों के दौरान होता है। लेकिन जाहिर है, इसकी तुलना में विदेशों में जमा धन के बारे में शोर मचाना ज्यादा सरल है।

(लेखक वरिष्ठपत्रकारहैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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