एक बार बीहड़ बन जाए, तो हर बारिश में वह और गहराता जाता है। इस तरह के भू-क्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सन 1971 में ही चेताया था कि देश में 30 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि बीहड़ में बदल चुकी है, जो कुल क्षेत्रफल का 1.12 प्रतिशत है। बीहड़ों का विस्तार सामाजिक और आर्थिक संकटों का जनक बन गया है। कृषि-प्रधान क्षेत्र में जब जमीन का टोटा हो रहा है, तो एक-एक इंच जमीन के पीछे गरदन-काट लड़ाई होना लाजिमी है। इस इलाके की डकैत समस्या के मूल में यही दिक्कत है। नक्शे पर लिखा है कि अमुक की जमीन की हद नदी से 10 मीटर दूर है। अब दो-तीन साल में नदी की हद ने जमीन काटकर बीहड़ बना दिए। जमीन का मालिक अब अपनी जमीन को दस मीटर आगे से नापता है, जो दूसरे के मालिकाना हक की जमीन है।
यहीं से विवाद शुरू होते हैं और फिर फरारी, डकैत बनते हैं। 20-25 फीट गहरे बीहड़ बागियों के लिए एक निरापद शरण-स्थली होते हैं। बीहड़ कोई अपराजेय संकट नहीं है। अभी तक बीहड़ को रोकने के जो भी प्रयोग हुए, वे भूमि कटाव को रोकने व नमीकरण पर केंद्रित रहे हैं। ये जमीन के वैकल्पिक उपयोग की नीति पर केंद्रित रहे। स्थानीय किसान न तो इससे सहमत रहे हैं, न ही उनकी भागीदारी इसमें रही, सो ये योजनाएं सफल नहीं हो सकीं। चंबल में जमीन समतल करने के साथ-साथ जल संरक्षण और इस पानी का इस्तेमाल खेती के लिए करने हेतु आम लोगों की क्षमता का विकास करना होगा। इसके लिए जागरूकता और प्रशिक्षण दो महत्वपूर्ण कदम होंगे। यह काम लोगों को साथ लेकर ही हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)