वर्ष 2012 में दुनिया का जीडीपी 71.83 लाख करोड़ डॉलर के बराबर था। पिछले आठ वर्षों में यह 4 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा है। वर्ष 1900 में दुनिया का जीडीपी महज 1.1 लाख करोड़ डॉलर था। इसने चार गुना होने यानी 4.01 लाख करोड़ के आंकड़े तक पहुंचने में आधी सदी का वक्त लिया, लेकिन अगले पचास सालों में यह दस गुना बढ़कर 41 लाख करोड़ हो गया। ऐसा कैसे हुआ? इस तेजी की शुरुआत वर्ष 1971 में तब हुई थी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने एकतरफा फैसला लेते हुए अमेरिकी डॉलर को इंटरनेशनल गोल्ड स्टैंडर्ड से अलग कर लिया था। आज दुनिया का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 12 लाख करोड़ डॉलर के बराबर है, जिसमें से 60.7 फीसद अमेरिकी डॉलर में, 24.2 यूरो में, 4 येन में और 3.9 फीसद यूके पाउंड में है।
चूंकि विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा डॉलर और यूरो में है, इसलिए इन मुद्राओं वाले देशों को इन मुद्राओं का भंडार करने की ज्यादा जरूरत नहीं है। आज अमेरिका का कुल मुद्रा भंडार 139 अरब डॉलर है। जर्मनी, फ्रांस और यूके का तो इससे भी कम है। इसकी तुलना में भारत का (विदेशी) मुद्रा भंडार 314 अरब डॉलर और चीन का तो 4055 अरब डॉलर के बराबर है। इस अंतिम आंकड़े से हमें पता चलता है कि चीन ने अमेरिका में कितना पैसा लगा रखा है और इसके कारण अमेरिका भी चीन पर खासा नियंत्रण रख सकता है। वर्ष 1995 में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के पास दुनिया के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 67 प्रतिशत हिस्सा हुआ करता था, लेकिन वर्ष 2011 तक तस्वीर पूरी तरह से बदल गई। अब विकासशील और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के पास दुनिया का 67 प्रतिशत विदेशी मुद्रा भंडार है।
अब जरा देखें कि इसके पीछे की कहानी क्या है। विकासशील और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं अमेरिका को न्यूनतम दरों पर वस्तुएं और सेवाएं मुहैयाकराती हैं, जिसके ऐवज में अमेरिका उन्हें डॉलरों में भुगतान करता है। इस रकम को वे देश फिर अमेरिकी बैंकों में ही जमा करवा देते हैं। और चूंकि पैसा चुपचाप नहीं बैठ सकता, इसलिए अमेरिकी बैंकों में जमा यह पैसा फिर अमेरिकियों को कर्ज के रूप में दे दिया जाता है। आज एक आम अमेरिकी जितने कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है, उतना दुनिया के किसी और देश का व्यक्ति नहीं है। आज अमेरिकियों पर कुल कर्ज का आंकड़ा 11.4 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। हर अमेरिकी घर पर क्रेडिट कार्ड का कर्ज ही औसतन 15 हजार डॉलर तक का है।
ऐसा नहीं है कि इस आर्थिक विडंबना को को कोई समझ नहीं पाता, लेकिन इसके बावजूद चीन, रूस, जापान, कुवैत, भारत जैसे देश एक से दो प्रतिशत की दर पर अमेरिकी प्रतिभूतियों में पैसा लगाते रहते हैं। इससे यह स्थिति निर्मित हो गई कि पूरी दुनिया मिलकर अमेरिका को सस्ता कर्ज मुहैया कराती रहती है, जिससे हैसियत से ज्यादा खर्च करने की अमेरिकियों की प्रवृत्ति को और बल मिलता चला गया। दुर्भाग्य है कि आज दुनिया में कोई ऐसा वैश्विक रेगुलेटर नहीं है, जो अमेरिका को अपनी इस शाहखर्ची पर लगाम लगाने को कहे। साथ ही ऐसा भी कोई वैश्विक नियामक नहीं है, जो चीन जैसे देशों को कहे कि अपने कारोबार में संतुलन की स्थिति निर्मित करें। आज दुनिया की अर्थव्यवस्था में जितनी भी गड़बड़ियां हैं, उनमें से बहुतों का कारण अमेरिकियों द्वारा कर्ज लेकर घी पीने की प्रवृत्ति व चीन की जरूरत से ज्यादा आमदनी है, क्योंकि इन दोनों के ही कारण अमेरिकी बैंकों में भारी मात्रा में पैसा जमा हो गया है।
जुलाई 1944 में हुई ब्रेटन वुड्स कांफ्रेंस में लॉर्ड कीन्स ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भंडार की एक मुद्रा चलाने का विचार व्यक्त किया था, लेकिन अमेरिकियों की जिद के चलते इसे दरकिनार कर दिया गया। कीन्स का प्रस्ताव था कि वैश्विक मुद्रा भंडार के लिए ‘बैंकोर" नामक एक मुद्रा की स्थापना की जाए, जिसका कामकाज एक अंतरराष्ट्रीय केंद्रीय बैंक के हाथों में हो। लेकिन एक सच्चे साहूकार की तरह अमेरिका, जो कि दुनिया का आर्थिक मुखिया बनने के लिए लालायित था, कीन्स के प्रस्तावों को महत्वहीन बताकर खारिज करता रहा। अमेरिका को लगता था कि कारोबार में असंतुलन केवल उन्हीं मुल्कों की समस्या है, जिनकी अर्थव्यवस्था घाटे में है, लेकिन हकीकत तो यह है कि खुद अमेरिकी अर्थव्यवस्था लंबे समय तक घाटे में रही थी।
1971 में जब निक्सन ने अमेरिकी डॉलर को इंटरनेशनल गोल्ड स्टैंडर्ड से डी-लिंक कर दिया तो किसी मानक और नियामक प्रणाली के अभाव में वॉल स्ट्रीट के बड़े निजी बैंकों को जैसे मनमानी करने का लाइसेंस मिल गया। आज हम इसी का खामियाजा भुगत रहे हैं। एक तरफ अमेरिकी सस्ते कर्ज पर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं तो दूसरी तरफ निर्यात पर आधारित अनेक देशों के लिए अमेरिका का व्यावसायिक घाटा ही ग्रोथ इंजिन बन गया है।
– लेखक आर्थिक मामलों के विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं