चीनी पर किसानों का पहला हक- वी एम सिंह

उत्तर प्रदेश में गन्ना सबसे बड़ी नकदी फसल है। इससे सीधे तौर पर 50 लाख किसान और उन पर आश्रित करीब दो करोड़ लोग जुड़े हुए हैं। मैं पिछले 20 वर्षों से गन्ना किसानों के हक में चीनी मिल मालिकों और प्रदेश व केंद्र सरकारों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ रहा हूं।

इस दौरान किसानों के पक्ष में अदालत से बहुत सारे ऐसे अहम फैसले हुए, जिनका तात्कालिक और दूरगामी असर पड़ा। अदालत से ही राज्य सरकारों को गन्ना मूल्य निर्धारित करने का अधिकार मिला, किसानों को बकाया गन्ना मूल्य का भुगतान हुआ, विलंब से गन्ना मूल्य अदा करने पर चीनी मिलों को ब्याज देना पड़ा।

और भी कई महत्वपूर्ण फैसले हुए, जैसे पूरा गन्ना पेराई किए बगैर मिलें बंद नहीं होंगी, पेराई बंद हो जाए, तो किसानों को खेतों में खड़े गन्ने का पेमेंट मिलेगा, अगेती प्रजाति बरकरार रहेगी, एक मिल-एक रेट और एक सोसाइटी-एक रेट रहेगा, राज्य सरकार विलंब करे, तो अदालत से गन्ना मूल्य तय कराना और मिलें चलवाना।

किसानों को जब राज्य परामर्शी मूल्य (एसएपी) से कम रेट मिला, तब अदालत से बकाया अंतर वाली राशि का भुगतान दिलाया, गन्ना मूल्य और ब्याज का भुगतान न होने तक कृषि ऋणों की आरसी पर रोक लगवाई।

इस लड़ाई में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का विगत पांच सितंबर का आदेश मील का पत्थर कहा जा सकता है, जिस पर 13 अक्तूबर को उच्चतम न्यायालय ने भी मुहर लगा दी है। इस ऐतिहासिक फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे, जिससे गन्ना किसानों की जिंदगी बेहतर होगी।

इस आदेश के दो पहलू हैं- पहला गन्ना किसानों की बदहाली, जिसके कारण वे आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो जाते हैं, अब राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। दूसरा यह कि आजादी के बाद पहली बार गन्ना मूल्य अदायगी के लिए चीनी पर किसानों का पहला हक माना गया है।

दरअसल, चीनी मिल मालिकों ने चतुराई दिखाते हुए 15-20 साल पहले विज्ञापन निकालने शुरू किए कि वे घाटे का बिजनेस कर रहे हैं। गन्ना मूल्य लगातार बढ़ रहा है और चीनी के दाम में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही, उल्टे गिरावट आ रही है। इसी को आधार बनाकर प्राइवेट शुगर लॉबी ने 1996-97 से लगातार गन्ना मूल्य को चुनौती देना शुरू कर दिया।

किसानों ने भोलेपन में चीनी मिलों के घाटे की बात को अपना मुकद्दर मान लिया। इस दरम्यान मिल मालिकों ने खूब मुनाफा कमाया। उन्होंने 34 से बढ़ाकर 99 मिलें बना लीं। अफसोस है कि किसानों की आत्महत्याओं को नेताओं और मिल मालिकों ने नजरंदाज करने का काम किया।

हमने पेराई सत्र 2013-14 के दौरान आत्महत्या करने वाले गन्ना किसानों के घर जाकर तथ्य जुटाए और दस्तावेज कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किए। मिल मालिक और राज्य सरकार, दोनों ने कोर्ट में इन आत्महत्याओं को झूठा ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मगर दस्तावेजों के आधार पर उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में आत्महत्याओं पर जोर देते हुए गन्ना मूल्य को किसान के जीवन यापन का आधार माना है।

पिछले 13 अक्तूबर को उच्चतम न्यायालय ने हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील सुनते हुए किसान के जीने के आधार को व्यापार केअधिकार से ऊपर माना है। उच्च न्यायालय के आदेश से गन्ना किसानों की आत्महत्या राष्ट्रीय मुद्दा बनी। जिसका संज्ञान लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस आदेश पर मुहर लगा दी, जिसमें गन्ना मूल्य भुगतान के लिए चीनी पर किसानों का पहला हक बताया गया है।

आजादी के बाद से अब तक किसान चीनी मिलों को अपना गन्ना बेचता आ रहा है, पर गन्ना मूल्य भुगतान मिल मालिकों की दया पर निर्भर था। मिल मालिक चीनी गिरवी रख कर बैंकों से पैसा तो लेते हैं, पर बहुत सारा धन मिलों का विस्तार करने और नई मिलें लगाने में लगा देते हैं या अपनी सहयोगी कंपनियों को दे देते हैं। तभी तो जो मिल मालिक 1996 से घाटे का रोना रो रहे थे, उनके मिलों की तादाद में तीन गुना बढ़ोतरी हो गई है।

उच्च अदालत से स्पष्ट हो गया कि चीनी जब भी बिकेगी या गिरवी रखी जाएगी, पहले किसानों को गन्ना मूल्य दिया जाएगा। इस फैसले से मिल मालिकों का पैसा डायवर्ट करने का खेल खत्म हो गया। वे चीनी बेचकर या बैंकों में बंधक बनाकर लिया गया धन डायवर्ट नहीं कर पाएंगी। अब बैंक मिल मालिकों से समझौते के तहत जिलाधिकारी की निगरानी में खाता खोलेंगे और सारा पैसा गन्ना भुगतान के लिए इस्तेमाल करेंगे।

चीनी मिल मालिक उच्च न्यायालय के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने नहीं आए। उच्च न्यायालय के आदेश को बैंकों ने चुनौती दी। केंद्र सरकार के अटार्नी जनरल उच्चतम न्यायालय में पेश हुए और कहा कि चीनी पर पहला हक बैंकों का है, न कि किसानों का। जब मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल से पूछा कि गन्ना किसानों की आत्महत्याओं के बारे में उन्हें क्या कहना है, तो वे चुप हो गए। कोर्ट ने कहा, चीनी पर पहला हक बैंकों का होगा, तो फिर किसान कहां जाएगा?

उच्च न्यायालय के आदेश के दो सप्ताह के भीतर ही, जब तक किसान इस आदेश से अपने भविष्य पर पड़ने वाले फर्क का आकलन कर ही रहा था कि मिल मालिक फिर उच्च न्यायालय चले गए। उन्होंने याचिका दाखिल की कि वे इस साल मिलें नहीं चलाएंगे। उनके लिए गन्ने का क्षेत्रफल तब तक आरक्षित न किया जाए, जब तक कि गन्ना मूल्य को कम करके चीनी के रेट से जोड़ा जाए।

16 अक्तबूर को कोर्ट ने मिल मालिकों की दलीलों को खारिज करते हुए राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह तत्काल मिलों के लिए गन्ना आरक्षण आदेश जारी करे, गन्ना मूल्य निर्धारित करे और अपनी 24 मिलें जल्दी चलाए। 20 साल की कड़ी मेहनत के बाद अब लग रहा है कि जो व्यवस्था आजादी के बाद से डगमगा गई थी, वह पटरी पर लौट रही है। यह सुखद है कि गन्ना आपूर्ति करने के बाद जिन किसानों का चीनी और अन्य उत्पादों पर अधिकार नहीं था, वह उन्हें मिल गया है, वह भी पहले अधिकार के रूप में।

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