सर्दियों के दस्तक देने के साथ यहां के बेघरबार, विद्यार्थी, छोटे व्यापारी और दूसरे तमाम लोग जिस तरह अपने अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं, उससे कश्मीर एक दुःस्वप्न की तरह ज्यादा दिख रहा है। पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अपनी पहली दिवाली श्रीनगर में मनाई, और इस दौरान उन्होंने कश्मीरियों की दिक्कतें और शिकायतें भी सुनीं। इसे एक संदेश और एक संकेत की तरह समझा जाना चाहिए।
मोदी इस खेल में माहिर हैं, दरअसल ‘मोदी’ अपने आप में एक संदेश हैं। अपने अनोखे अंदाज में मोदी केंद्र सरकार को घाटी के लोगों तक ले गए। छोटी-छोटी चीजों के प्रबंधन कौशल में निपुण राजनेता के तौर पर मोदी ने खास तौर पर व्यवस्था बहाली के तत्कालिक मुद्दों पर ध्यान दिया, मसलन, आवास, बच्चों के लिए किताबें, चिकित्सा सुविधाएं इत्यादि। इसके लिए एक हजार करोड़ रुपये की मदद के अलावा उन्होंने 745 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता राशि उपलब्ध कराने की भी घोषणा की। हालांकि बाढ़ की भयावहता को देखते हुए यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है।
गौरतलब है कि उमर अब्दुल्ला सरकार पहले ही नुकसान की भरपाई के लिए 44 हजार करोड़ रुपये की जरूरत जता चुकी है। इस आंकड़े को लेकर बेशक बहस की जा सकती हो, मगर कश्मीर में आई प्रलय की भयावहता संदेह से परे है। मोदी सरकार स्वीकारती है कि इस मोर्चे पर काफी कुछ किया जाना बाकी है, और ऐसा किया भी जाएगा। हालांकि इस त्रासदी के पीछे भारत और नरेंद्र मोदी के लिए एक अवसर भी छिपा है। क्यों न श्रीनगर को भारत के पहले स्मार्ट शहर के तौर पर विकसित किया जाए? पुनर्निमाण की यह विकराल चुनौती स्मार्ट शहरों के लिए नीति निर्धारण का रास्ता खोल सकती है।
श्रीनगर को 100 स्मार्ट शहरों के विचार का प्रतिनिधि चेहरा बनाया जा सकता है। गौरतलब है कि भारत में शहरीकरण की शुरुआत नियोजित न होकर, बेतरतीब ढंग से हुई। तकरीबन साढ़े छह करोड़ लोग आज भी गंदी बस्तियों में रहते हैं। फिर हर वर्ष आने वाली प्राकृतिक आपदाएं भी अनियोजित शहरीकरण का वास्तविक चेहरा सामने ले आती हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने शहरीकरण का चेहरा बदलने और उसमें तेजी लाने का वायदा किया है। सौ स्मार्ट शहरों की पहल, जो एक महत्वपूर्ण चुनावी वायदा होने के साथ, सुशासन का बुनियादी मूल्य भी है, भारत की जरूरत बन चुकी है। हालांकि इस संदर्भ में अंतिम नीति का मसौदा बनना अभी बाकी है, मगर फिलहाल तो यह विचार हकीकत बनने से पहले ही दिशा-निर्देशों के झंझावात में फंसा दिख रहा है।
श्रीनगर में स्कूल, दुकानें, बिजली के तार, जलापूर्ति और टेलीफोन व्यवस्था, सड़कें और पुल पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला इसे शताब्दी की सबसे भयावह त्रासदी बता चुके हैं। ऐसे में, पूरे शहर कीपुनर्स्थापना करनी होगी।
उल्लेखनीय है कि दो हजार वर्ष से भी पहले स्थापित श्रीनगर दूसरे भारतीय शहरों की तरह सुरक्षा और पर्यावरण की चिंता किए बगैर विकसित होना शुरू हुआ। श्रीनगर की हालिया त्रासदी दरअसल विविध मोर्चों पर नाकामयाबी का बहुआयामी असर है। इसकी भयावहता और पुनर्स्थापन व पुनर्वास की विकराल चुनौती को देखते हुए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है, और यही सही मौका है, जब इसे स्मार्ट शहर बनाने की कवायद शुरू कर दी जाए।
इस संदर्भ में प्रेरणा लेने के लिए वैश्विक स्तर पर तमाम ऐसे शहरों के उदाहरण मौजूद हैं, जिन्होंने आपदा के बाद खुद को पुनर्स्थापित किया। मसलन, 2007 में अमेरिका में टॉरनेडो से बर्बाद हुए ग्रीन्सबर्ग शहर ने अपनी पुनर्स्थापना के लिए ग्रीन और स्मार्ट शहर का रास्ता अपनाया। इसके अलावा हाल ही में भूकंप और सुनामी की मार झेल चुका फुकुशिमा नई अवधारणाओं के उपयोग के जरिये धीरे-धीरे उबर रहा है।
दरअसल, भविष्य के लिए श्रीनगर की पुनर्स्थापना करते वक्त अनियोजित विस्तार के विचार से तौबा करते हुए स्मार्ट नजरिया अपनाने की जरूरत है। कश्मीर की हालिया त्रासदी का पहला पाठ है कि श्रीनगर में बुनियादी व्यवस्था का कोई भी ऐसा सूत्र नहीं बचा था, जो ध्वस्त न हुआ हो। ऊंचाई से ली गई तस्वीरें, सैटेलाइट तस्वीरें, टेलीविजन फुटेज और सबसे महत्वपूर्ण सेना के दस्तावेजों को खंगालने पर मालूम पड़ जाएगा कि क्या नहीं होना चाहिए था, और फिलहाल क्या जरूरत है।
सबसे पहले तो पर्यावरण के प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। इसके लिए परंपरागत पद्धतियों को मजबूत बनाना होगा, और भूमि के उपयोग को फिर से चिह्नित करना होगा। पारिस्थतिकीय तौर पर काफी अस्थिर इस क्षेत्र में मौसम पूर्वानुमान तंत्र को दुरुस्त करना होगा। 2010 से जिन डॉप्लर रडारों की बात हो रही है, उनके समेत दूसरे आधुनिकतम उपकरणों का उपयोग करना होगा।
ऊर्जा और संचार से जुड़ी व्यवस्थाओं को इस तरह विकसित करना होगा, कि इन्हें हर स्थिति में बहाल रखा जा सके। चेतावनी प्रणाली और निकास व्यवस्था को पुख्ता बनाने के लिए सूचना तकनीक का बेहतर इस्तेमाल होना जरूरी है।
इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन की तेज व्यवस्था और नवीकरणीय वैकल्पिक ऊर्जा तंत्र जैसे उपायों की लंबी सूची है, जिन्हें बगैर देर किए लागू किया जाना चाहिए।
इसके लिए देश-विदेश के ख्यात शिल्पकारों, डिजाइनरों और योजनाकारों से विचार आमंत्रित किए जा सकते हैं। इस क्षेत्र में कार्यरत भारतीय कंपनियों की मदद भी ली जा सकती है। इस दिशा में मोदी सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर है। राज्य की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कहने की जरूरत नहीं कि सारा व्यय केंद्र सरकार के ही जिम्मे होगा। तो फिर इस आपदा को अवसर बनाने में देर कैसी? खुसरो के शब्दों को फिर से जीवंत बनाने का मौका मोदी सरकार के पास है।