रोजगार गारंटी का क्या विकल्प? – डॉ. भरत झुनझुनवाला

इसमें कोई संदेह नहीं कि मनरेगा के कारण गरीबों को बड़ी राहत मिली है। मनरेगा के लागू होने के बाद दो वर्षों के अंदर खेत मजदूरों की दिहाड़ी 120 रुपए से बढ़कर 250 हो गई थी। बिहार के श्रमिकों ने पंजाब जाना कम कर दिया था, क्योंकि उन्हें घर के पास रोजगार मिल रहा था, चाहे वह सीमित मात्रा में ही क्यों न हो। इस कार्यक्रम पर अब केंद्र सरकार छुरी चलाने को है। कार्यक्रम का दायरा 200 पिछड़े जिलों में सीमित करने का प्लान है। ऐसे में आम आदमी पर विपरीत प्रभाव पड़ने की पूरी संभावना है।

पहली नजर में रोजगार गारंटी कार्यक्रम गांधीजी की कल्पना के अनुरूप दिखता है। गांधीजी ने कहा था कि वे नंगे-गरीब को कपड़े देने के स्थान पर रोजगार देना चाहते हैं, परंतु गांधीजी का रोजगार से आशय सरकारी योजना से मिलने वाली भिक्षा से नहीं, बल्कि कॉमर्शियल रोजगार से था। कॉमर्शियल रोजगार हुआ, जैसे रेहड़ी लगाना अथवा कारखाने में नौकरी करना। इन रोजगार के दौरान श्रमिक उत्पादन करता है। मालिक सरकार को टैक्स अदा करता है। श्रमिक को वेतन मिलता है, उद्यमी लाभ कमाता है और सरकार को टैक्स मिलता है। रोजगार सृजन की यह नीति टिकाऊ है।

रोजगार गारंटी कार्यक्रम का रूप बिल्कुल भिन्न् है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत पहले सरकार द्वारा चालू उद्यम पर टैक्स लगाया जाता है। इस टैक्स के भार से कुछ उद्यम दबाव में आकर बंद हो जाते हैं। उद्यम बंद होने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या में वृद्धि होती है और रोजगार गारंटी कार्यक्रम पर भार बढ़ता है। बिहार के श्रमिक पंजाब नहीं गए तो उनका अतिरिक्त बोझ रोजगार गारंटी कार्यक्रम पर आ पड़ा है। इस बढ़ते खर्च की पूर्ति के लिए सरकार को चल रहे उद्यमों पर ज्यादा टैक्स लगाना पड़ता है। उद्यमी को भी दिहाड़ी ज्यादा देनी पड़ती है, जिससे दूसरे उद्यम बंद हो जाते हैं। इस प्रकार टैक्स में वृद्धि, उद्यमों के बंद होने एवं उत्तरोत्तर अधिक लोगों के बेरोजगार होने का दुष्चक्र पैदा हो जाता है।

इस योजना में ‘रिसाव" की भी समस्या है। टैक्स लगाकर वसूल की गई रकम को सरकारी बाबुओं के माध्यम से गांव तक पहुंचाया जाता है। इस प्रक्रिया में ‘रिसाव" होता है। किसी प्रधान ने बताया कि कार्यक्रम में बाबू केवल ऐसे कार्यों की स्वीकृति देते हैं, जिनके लिए माल की सप्लाई में उन्हें कमीशन मिलता है। जैसे चक डैम बनाने की स्वीकृति आसानी से मिल जाती है, क्योंकि लोहे के तार की खरीद में बाबुओं को कमीशन मिलता है। जल संग्रहण के लिए तालाब खोदने की स्वीकृति नहीं मिलती, क्योंकि इसमें माल की सप्लाई की जरूरत नहीं होती। ‘रिसाव" एवं बाबुओं के खर्च काटने के बाद जो रकम बचती है, वह श्रमिकों को भिक्षा के रूप में मिलती है।

अमेरिका और यूरोपीय देशों में बेरोजगारी भत्ता कार्यक्रम का लगभग ऐसा ही प्रभाव पड़ा है। इस बात को नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. एडमंड फेल्प्स ने स्पष्ट रूप से बताया है। उनका कहना है कि रोजगार सबसिडी इस प्रकार देनी चाहिए कि लोग आत्मनिर्भर हो सकें और कॉमर्शियल रोजगार ढूंढ़ सकें। उन्होंने बताया कि अमेरिका एवं यूरोपमें सामाजिक सुरक्षा एवं बीमा योजनाएं बड़े पैमाने पर लागू हैं, परंतु इनसे बेरोजगारी कम होने के स्थान पर बढ़ रही है। मुफ्त में मिल रही इस राहत को प्राप्त करने के लालच में बेरोजगारों को रोजगार ढूंढ़ने की प्रेरणा नहीं रह जाती है, सरकार पर उनकी निर्भरता बढ़ती है और वे कॉमर्शियल कार्यों से दूर हो जाते हैं।

डॉ. फेल्प्स का सुझाव है कि बेरोजगारी भत्ता अथवा रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं के स्थान पर उद्योगों को रोजगार सबसिडी दी जाए। इससे बड़े किसानों एवं उद्यमों के लिए श्रमिकों को रोजगार देना सस्ता हो जाएगा और कॉमर्शियल रोजगार में भी वृद्धि होगी। दी गई रकम की आंशिक वसूली बढ़ी हुई कॉमर्शियल गतिविधि से हो जाएगी। श्रम सस्ता होने के कारण उद्यमों की लागत कम आएगी, वे उत्पादन ज्यादा करेंगे और टैक्स ज्यादा अदा करेंगे।

रोजगार गारंटी के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि इससे श्रमिकों की ऊंचे वेतन मांगने की ताकत बढ़ जाती है। जैसे बिहार के श्रमिक पंजाब जाने के लिए 200 रुपये के स्थान पर 300 रुपये की दिहाड़ी की मांग कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें कुछ रोजगार घर में उपलब्ध है। यह तर्क सही होते हुए भी इसमें दिक्कत है। मुंबई की

कपड़ा मिलों में दत्ता सामंत के नेतृत्व में श्रमिकों ने ऊंचे वेतन की मांग की थी। फलस्वरूप मुंबई से यह उद्योग गुजरात पलायन कर गया था। बंगाल से तमाम फैक्टरियों और केरल से श्रम सघन कृषि का पलायन हो चुका है। यदि पंजाब के किसानों को बिहार के श्रमिक नहीं मिलेंगे तो वे मशीनों का उपयोग बढ़ाएंगे अथवा श्रम-सघन फसलों को त्याग देंगे। दीर्घकाल में श्रमिक अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी चलाते पाए जाएंगे। रोजगार गारंटी के पक्ष में दूसरा तर्क है कि इस मद से गांव की क्रय शक्ति बढ़ रही है, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी।

यह तर्क भ्रामक है। तेजी का अर्थ होता है उत्पादन एवं खपत के सुचक्र का स्थापित होना, जैसे किसान अंगूर उगाए और गांव के लोग उन्हें खाएं तो तेजी वास्तविक है। रोजगार गारंटी से ऐसे उत्पादन में वृद्धि नहीं होती है। जैसे प्रवासी बेटे द्वारा भेजी गई रकम से बढ़ी हुई खपत को विकास नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार रोजगार गारंटी से मिली रकम को सच्ची आमदनी नहीं कहा जा सकता है।

सरकार को चाहिए कि डॉ. फेल्प्स द्वारा बताई गई रोजगार सब्सिडी की ओर ध्यान दे। मनरेगा के स्वरूप में परिवर्तन अवश्य करना चाहिए, लेकिन इसका उद्देश्य गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम पर खर्च में कटौती नहीं, बल्कि इसमें दिशा परिवर्तन मात्र होना चाहिए। इस रकम को इस प्रकार वितरित करना चाहिए कि किसान तथा उद्यमी के लिए श्रमिक को रोजगार देना हल्का पड़े। उदाहरण के लिए पीएफ का हिस्सा उद्यमी को सरकार द्वारा दिया जा सकता है अथवा साल के अंत में उद्यमी द्वारा सृजित किए गए रोजगार पर 500 रुपये प्रति श्रमिक प्रतिमाह की सबसिडी उद्यमी को दी जा सकती है। ऐसा करने से श्रमिक को रोजगार देने में उद्यमी की लागत कम आएगी और वह मशीन के स्थान पर ज्यादा श्रमिकों को रोजगार देगा।

– लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।येउनके निजी विचार हैं

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