वहीं सत्तर के दशक के शुरुआती दौर में जब हमारे यहां आयातित उत्पादों पर प्रतिबंध था, तब भी यहां ‘मेड इन यूएसए" उत्पाद बिकते थे। यूएसए यानी ‘उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन"। ऐसा हमारी अनुकरण करने की अद्भुत क्षमता के चलते संभव हुआ था। यह प्रवृत्ति हमारे समाज में व्यापक तौर पर पैठ चुकी है और यहां तक कि इंजीनियरिंग शिक्षा में भी घुसपैठ कर चुकी है। अस्सी के दशक में हमने तकनीकी आयात और री-इंजीनियरिंग का दौर देखा। हालांकि तब भी भारतीय विकल्प निर्मित करने की सोच कायम थी, लेकिन इसमें बहुत कम विकास देखा गया। इस (जुगाड़ के) नजरिए और शॉर्टकट की नीतियों से हमारा कुछ औद्योगिक विकास जरूर हुआ, लेकिन हम मौलिक तकनीकों से वंचित रह गए। इन कामचलाऊ व्यवस्थाओं से निर्भरतावादी विकास तो हो सकता है, लेकिन असल तीव्रगामी विकास तो मौलिक, नए उत्पादों और तकनीकों के निर्माण के जरिए ही संभव है।
आज इस वैश्वीकृत व्यवस्था में आप दुनिया के समक्ष नवोन्मेषी उत्पाद व तकनीकों को पेश कर ही व्यापार असंतुलन से निपट सकते हैं। वरना आप राजकोषीय घाटे में उलझ जाएंगे। तो क्या किया जाए? सीधी बात है- भारत के पास प्रचुर प्राकृतिक संसाधन हैं और हम इन्हें बेचकर धन कमा सकते हैं। हमने लंबे समय तक ऐसा किया भी है। अब हमें एहसास हुआ है कि दूसरे देश सस्ती लागत पर हमारे प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर इनमें कुछ वैल्यू एडिशन करते हुए फल-फूल रहे हैं।
यानी रचनात्मकता और उद्यमिता ऐसे दो जरूरी घटक हैं, जिन्हें संस्थागत रूप देते हुए हर स्तर पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हालांकि इस मामले में हमारी इंडस्ट्रीज का रिकॉर्ड बहुत उत्साहजनक नहीं है। हम आईबीएम, जीई, एप्पल व ऐसी अन्य कंपनियों को देखें तो पाएंगे कि ये सभी अपने नॉलेज मैनेजमेंट, इनहाउस रिसर्च और गुणवत्ता/लागत मानकों के दम पर दशकों से बुलंदियों पर हैं। वहीं भारतीय उद्योग जगत ज्यादातर रेडीमेड तकनीकों को तलाशता रहा और उसने देशज शोध व विकास पर खर्च करना नहीं सीखा।
हमें शैक्षणिक संस्थानों में समुचित सुविधाएं मुहैया करानी होंगी, जिससे देशज तकनीकों के विकास में मदद मिले व भारतीय प्रतिभाओं को बढ़ावा मिले। लेकिन हम इसे लेकरपूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं हैं। हमारी नीतियों में इंडस्ट्री-इंस्टीट्यूट अंतर्संवाद की बात होती है और हम इसे इंडस्ट्री-इंस्टीट्यूट सहभागिता के स्तर तक भी ले जाना चाहते हैं। लेकिन यह हकीकत से कोसों दूर है। हमारे संस्थान छात्रों को बस नौकरी लायक बनाना चाहते हैं, जबकि इंडस्ट्री खराब गुणवत्ता व समुचित पाठ्यक्रम के अभाव की शिकायत करती हैं। एआईसीटीई के जरिए किए गए सरकारी प्रयास महज कुछ योजनाओं व प्रोत्साहनों की घोषणाओं तक ही सीमित हैं। सरकार, शिक्षा जगत या इंडस्ट्री समेत किसी ने भी इसे मिशन के रूप में नहीं लिया है क्योंकि हमारे पास ऐसा विजन ही नहीं है। हमें निष्क्रिय विजन के बजाय एक सक्रिय नेतृत्व चाहिए।
यह देखना दिलचस्प है कि निजी विश्वविद्यालय व संस्थान अनेक पोस्टग्रेजुएट व पीएचडी प्रोग्राम चलाते हैं और ये सभी नई अवधारणा, कार्य-प्रणाली, या नए उत्पादों के प्रारूप निर्मित करने के निमित्त होते हैं। लेकिन हकीकत में ये सभी गतिविधियां महज औपचारिकता होती हैं। जब हम अपनी प्रतिभाओं को इस तरह तैयार करेंगे तो राष्ट्र कैसे अपने मेड इन इंडिया विजन को पूरा करने के बारे में सोच सकता है? मेड इन इंडिया को किसी दूसरे पर निर्भर प्रोजेक्ट की तरह नहीं लिया जा सकता, बल्कि यह हमारे सिस्टम यानी सरकार, शिक्षा जगत, वेंचर फंडिंग, उद्यमिता, उत्पाद विकास केंद्र, उद्योग जगत इत्यादि का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। हमें ऐसा सिस्टम तैयार करना होगा, जहां हमारी प्रतिभाएं नई खोजों के लिए प्रेरित हों और यदि वे अपनी कोशिशों में नाकाम हो जाएं, तो भी उनके समक्ष उज्ज्वल कॅरियर की संभावनाएं बरकरार रहें।
मेड इन इंडिया के लिए हमें साझा सुविधाएं स्थापित करना होंगी, जहां यह विचार आकार ले सके। ऐसी जरूरी सुविधाओं में नई सामग्रियों, सॉफ्टवेयर डिजाइन टूल्स, 3डी प्रिंटिंग, टेस्टिंग प्रोडक्ट डिजाइनिंग इत्यादि सुविधाओं की अहम भूमिका हो सकती है। मैंने जापान में देखा है कि उन्होंने किस तरह ऐसी तमाम एजेंसियों का एक संयोजक नेटवर्क तैयार किया है, जो इस तरह की रचनाओं को प्रोत्साहित करता है। हमें दूसरों पर निर्भर रहने के बजाय अपनी प्रबंधन क्षमताओं और मेड इन इंडिया के मिशन पर खास ध्यान देना चाहिए। मुझे यकीन है कि एक सच्चे मेड इन इंडिया की अनूठी भारतीय यूएसपी होगी, जो अपने उत्पादों की सौंदर्यपरकता, उपयोगिता व डिजाइन में भारत की संस्कृति को प्रतिबिंबित करेगा। आज देशों के बीच सीमा पर जंग नहीं है, बल्कि सोसायटियों के बीच अपनी-अपनी संस्कृतियों के साथ प्रतिस्पर्धात्मकता की आभासी जंग छिड़ी है।
-लेखक आईआईएम, इंदौर में प्राध्यापक रहे हैं