एक मित्र की टिप्पणी थी कि अगर कोई झाड़ू कंपनी शेयर बाजार में सूचीबद्ध होती, तो इन दिनों इसके शेयर आसमान छू रहे होते। महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन का शुभारंभ क्या किया, त्योहारों के इस मौसम में हर ओर बस बेचारी झाड़ू की ही चर्चा हो रही है। इस मौके पर खुद मोदी ने झाड़ू उठाकर नई दिल्ली में उपेक्षित सफाई कर्मचारियों की एक कॉलोनी वाल्मीकि सदन के बाहर गंदगी साफ की। इससे उनकी बेहद असरदार छवि उभरी है, जिसका प्रभाव न केवल दूर तक पड़ेगा, साथ ही, गंदगी के खात्मे को एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देने में भी मदद मिलेगी। मगर इसमें प्रतीकों को वास्तविकता में और संभावनाओं को जमीनी धरातल पर लाने की चुनौती भी छिपी हुई है। इसकी वजह को समझने के लिए उस पुरानी पहेली को सुलझाने की जरूरत होगी, जो सवाल उठाती है कि आखिर क्यों भारतीय मोबाइल फोन को टॉयलेट से ज्यादा जरूरी मानते हैं।
2010 में ओंटारियो स्थित संयुक्त राष्ट्र के एक विश्वविद्यालय के जल, पर्यावरण और स्वास्थ्य संस्थान (यूएनयू-आईडब्ल्यूईएच) ने यह रिपोर्ट पेश कर हलचल मचा दी थी कि 2008 में भारत में मोटे तौर पर जहां साढ़े छत्तीस करोड़ लोगों के पास स्वच्छता की सुविधा उपलब्ध थी, वहीं इससे कहीं ज्यादा साढ़े चौवन करोड़ लोगों के पास सेलफोन मौजूद था। इन आंकड़ों से लगता है कि इतने सारे लोगों के लिए टॉयलेट की तुलना में मोबाइल फोन ज्यादा बड़ी जरूरत है। सवाल और भी हैं। ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा होने की क्या वजह हो सकती है, जो टॉयलेट होने के बावजूद उसका उपयोग नहीं करते? या फिर क्या वजह है कि बड़ी संख्या में लोग आज भी भोजन से पहले और शौच के बाद साबुन से हाथ धोने की जरूरत नहीं समझते, जबकि प्रचार अभियानों के जरिये लगातार जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य के बीच जुड़ाव पर जोर दिया जा रहा है? कम शब्दों में कहें, तो आखिर इसकी क्या वजह है कि संपर्क की जिस जरूरत को सेलफोन ने अपना प्रतीक बनाया है, वह खुले में शौच को नकारने, टॉयलेट के उपयोग और साबुन से हाथ धोने जैसी स्वच्छता की अच्छी आदतों से ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जाती है?
भारत में मोबाइल क्रांति को इस तथ्य ने बढ़ावा दिया है कि उभरती हुई इस अर्थव्यवस्था में ज्यादातर लोग इसे सामान्य जीवन को गति देने के लिए जरूरी मानते हैं। मोबाइल खरीदने में पैसा खर्च करने में भी उन्हें गुरेज नहीं होता, भले उनकी आय कम क्यों न हो। छोटे शहरों और बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में भी जहां लैंडलाइन नेटवर्क सुचारु रूप से काम नहीं करता, वहां लोग उत्पादकता व आय बढ़ाने और परिवार व मित्रों के संपर्क में बने रहने के लिए सेलफोन खरीद रहे हैं। ऑटो रिक्शा चालक, मजदूर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन,घरेलू नौकर और किसान भी उन लोगों में शामिल हैं, जो हर महीने तीन से चार हजार रुपये कमाने के बावजूद अपने पास मोबाइल फोन रखते हैं। इससे दूसरे लोग और समूह भी ऐसा करने के लिए प्रेरित होते हैं।
सोचने वाली बात यह है कि वे कौन-से सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारक हैं, जो सफाई और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सामाजिक और व्यवहारगत बदलावों को प्रेरित करते हैं। पिछले दशक में इस पर हुए अनुसंधान इस सवाल का जवाब देते हैं। दरअसल परंपरागत तौर पर भारत में खुले में शौच करने को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है। इसी वजह से टॉयलेट के उपयोग और मल के सुरक्षित निस्तारण को प्रेरित करने वाले किसी अभियान को कई परिवारों और समुदायों के विरोध का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोगों का मानना है कि टॉयलेट गंदे होते हैं, और उन्हें घर के अंदर नहीं होना चाहिए। साक्षरता और जागरूकता बढ़ने के साथ लोगों का नजरिया बदला जरूर है, पर भारत में आज भी बड़ी तादाद में लोग निरक्षर बने हुए हैं। थोड़ी शिक्षा प्राप्त किए हुए लोगों की तुलना में किसी निरक्षर को स्वच्छता के महत्व को समझाना ज्यादा मुश्किल होता है। कई अध्ययनों से ऊंची आय और निजी टॉयलेट में संबंध का पता चलता है। मगर केवल निजी टॉयलेट होना सफाई और स्वास्थ्य के बारे में जगरूकता का सुबूत नहीं होता। टॉयलेट के होने का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि बाकायदा उनका उपयोग भी हो रहा है। फिर इसमें लिंग और जाति संबंधी कारक भी जुड़ जाते हैं। इससे सामुदायिक शौचालयों के रख-रखाव पर भी असर पड़ता है। रही-सही कसर लोगों की अज्ञानता पूरी कर देती है। गौरतलब है कि कम शिक्षा प्राप्त कई माताएं बच्चों का मल खुले में फेंक देती हैं।
सफाई की जरूरत बहुत से परिवारों की प्राथमिकता में इसलिए नहीं होती, क्योंकि वे न तो इसे अपनी आर्थिक दशा को सुधारने का जरिया मानते है, और न ही खुले में शौच और डायरिया जैसी बीमारियों के संबंध और इससे उनकी उत्पादकता पर पड़ने वाले प्रभाव को समझ पाते हैं। आने वाले समय में प्रधानमंत्री मोदी और स्वच्छ भारत मिशन से जुड़े लोगों को इन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। अच्छी शुरुआत के बावजूद अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। स्वच्छ भारत के मद्देनजर देश के जिन हिस्सों में कुछ हद तक कामयाबी हासिल हुई है, उनसे पता चलता है कि बेहतर संवाद के जरिये ही यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।