क्या गरीबी कभी खत्म हो सकती है?- लार्ड मेघनाद देसाई

लॉर्ड मेघनाद देसाई भारतीय मूल के ब्रिटिश अर्थशास्त्री और लेबर पार्टी से जुड़े राजनीतिज्ञ हैं. वह अर्थशास्त्र के विश्वविख्यात संस्थान, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर रह चुके हैं. उन्होंने कई किताबें लिखी हैं. उनके 200 से ज्यादा लेख अकादमिक जर्नलों में प्रकाशित हो चुके हैं.

वह कई भारतीय व ब्रिटिश अखबारों के लिए नियमित स्तंभ लिखते हैं. 5 सितंबर 2014 को उन्होंने पटना स्थित एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) में उसके 12वें स्थापना दिवस पर एक विशेष व्याख्यान दिया, जिसका विषय था- ‘कैन पॉवर्टी एवर बी एबॉलिश्ड’ (क्या गरीबी कभी खत्म हो सकती है?). यह व्याख्यान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि अक्सर ही गरीबी रेखा के निर्धारण को लेकर अपने देश में बड़े सतही किस्म के विवाद होते रहते हैं. मीडिया का रवैया भी इस मुद्दे की जटिलता को समझने व समझाने की जगह ‘28 रुपये कमानेवाले को गरीब नहीं मानती सरकार’ जैसे जुमले उछालने वाला रहता है. इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ चुनाव लड़ा और जीता था. आज भी हर चुनाव के केंद्र में गरीब और गरीबी रहते हैं. आखिर ऐसा कब तक? इसका जवाब ढूंढ़ने की दिशा में, लॉर्ड देसाई का यह व्याख्यान नजरिया बदलने वाला हो सकता है.

बा इबल कहता है कि गरीब हमेशा हमारे बीच में रहेंगे. औद्योगिक क्रांति होने तक बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि गरीबी कभी हटायी भी जा सकती है, लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लोगों ने गरीबों की स्थिति की पड़ताल शुरू कर दी थी. गरीबी की सीमा को मापने के लिए लंदन के ईस्ट एंड में चाल्र्स बूथ और न्यूयॉर्क में सीबोम राउनट्री ने गरीबों की जीवन स्थितियों का सर्वेक्षण किया था. ठीक उसी दौर में दादाभाई नौरोजी ने इसी किस्म का काम भारत में किया था.

दूसरी ओर हम हैं, जो करीब डेढ़ सौ साल बाद आज भी गरीबी को मापने में लगे हुए हैं. उसे खत्म करने के खुद से वादे कर रहे हैं और ऐसा प्रभावी तरीके से करने के लिए नीतियां गढ़े जा रहे हैं. हमने गरीबी की परिभाषा पर बहुत बहसें की हैं. क्या न्यूनतम कैलोरी खुराक और उसकी कीमत की कसौटी पर गरीबी की परिभाषा को निरपेक्ष रखा जाये या फिर इससे आगे जाकर उदार तरीके से कुछ और चीजें इसमें जोड़ी जायें और गरीबी की रेखा को ऊपर उठाया जाये? आखिर कितनी वस्तुएं हम जोड़ सकते हैं? या फिर जैसा कि कुछ ने तर्क दिया कि गरीबी एक सापेक्ष अवधारणा है और प्रत्येक समुदाय को खुद ही यह तय करना चाहिए कि गरीब नहीं माने जाने के लिए एक व्यक्ति या परिवार के पास न्यूनतम कितना हो. सापेक्ष गरीबी की समुदाय आधारित अवधारणा के प्रणोता पीटर टाउनसेंड के साथ एक शास्त्रीय विमर्श के दौरान अमर्त्य सेन ने सक्षमताओं (कैपेबिलिटीज) और परिचालन (फंक्शनिंग) का अपना सिद्घांत प्रतिपादित किया था, जिसे बाद में कुछ लोगों ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक (मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स- एमपीआइ) के रूप में विकसित किया. (टाउनसेंड 1979/1985; सेन 1983/1985; देसाई 1986/1995 अल्कायर)

भारत में पारिवारिक आय के संदर्भ में लगातार राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण होते रहे हैं, जिसमें गरीबी के स्तरको कैलोरी माप के एक मानक पर आधारित रखा गया है (जिसे बाद में सुरेश तेंदुलकर कमिटी ने बढ़ा दिया), जिससे हमें गरीबों की संख्या का पता लगता है. इसके बावजूद हर बार जब प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रुपयों के संदर्भ में गरीबी के आंकड़े छपते हैं, तो मीडिया में तूफान खड़ा हो जाता है और लोगों को आश्चर्य होता है कि यह आंकड़ा इतना कम कैसे हो सकता है. गरीबी के आंकड़ों का निरंतर और सतर्कतापूर्ण मापन बताता है कि अब यह दर 22 फीसदी से नीचे आ गयी होगी, इसके बावजूद सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोग इसका विरोध करते हैं. भारत में गरीबी की दर के अनुमान का दायरा 22 से लेकर 80 फीसदी तक हो सकता है. यह इस पर निर्भर करता है कि आप किसे अपनी कसौटी मान रहे हैं- तेंदुलकर को, विश्व बैंक को या अजरुन सेनगुप्ता को. मसलन, एनएसएस (नेशनल सैंपल सव्रे) के मुताबिक 2010 में यह आंकड़ा 29.8 फीसदी था (और 2013 में 21.9 फीसदी), जबकि विश्व बैंक का 2009 का आंकड़ा 32.7 फीसदी था. स्वर्गीय डॉ अजरुन सेनगुप्ता ने भारत सरकार को असंगठित क्षेत्र में उद्यमों पर राष्ट्रीय आयोग की जो रिपोर्ट 2009 में सौंपी थी, उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की दर 77 फीसदी है. ताजा मानव विकास सूचकांक बताता है कि एपीआइ के हिसाब से भारत में गरीबी की दर 53.7 फीसदी है और 27.8 फीसदी लोग अत्यधिक एमपीआइ श्रेणी में आते हैं (एचडीआर 2014).

ऐसा लगता है कि गरीबों की संख्या और उसकी दर एक परिवर्तनीय कोटि है, जो इस पर निर्भर करती है कि आप अपनी कसौटी किसे मान रहे हैं. जाहिर है इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. विश्व बैंक की सवा डॉलर पीपीपी (क्रय शक्ति समतुल्यता) की गणना के मुताबिक भारत में 30 फीसदी से ज्यादा गरीब हैं, जबकि विश्व बैंक खुद कहता है कि यदि हम पांच डॉलर को अपनी कसौटी मान लें, तो भारत की 96 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जायेगी. इस संदर्भ में दो अहम तथ्य और हैं, जो मैं आपके समक्ष रखना चाहूंगा. एक तो यह है कि कुल आय और प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में देश जैसे-जैसे समृद्ध होते जाते हैं, गरीबी की दर ज्यादा होती जाती है. दूसरा चिंताजनक तथ्य यह है कि सर्वाधिक विकसित देशों में अब भी गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों की संख्या अच्छी-खासी है.

दो उदाहरण

(1) एशियन डेवलपमेंट बैंक ने अपनी हालिया रिपोर्ट में निष्कर्ष दिया कि एशिया में गरीबी का आकलन कम किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक असल गरीबी रेखा सवा डॉलर पीपीपी के हिसाब से नहीं, बल्कि 1.51 डॉलर पीपीपी के हिसाब से है. इस तरह पैमाना ऊंचा रखने पर गरीबी की दर भी ऊपर चली जाती है. पीपीपी को 1.25 डॉलर से 1.51 डॉलर तय करने पर 2010 में गरीबी की दर 20.7 फीसदी से बढ़ कर 30.5 फीसदी हो जाती है और गरीबों की संख्या 34.3 करोड़ बैठती है. गरीबी रेखा निर्मित करते वक्त यदि आप अखाद्य वस्तुओं के बरक्स खाद्य वस्तुओं की कीमतों को ज्यादा भारिता (वेटेज) देते हैं, तो अतिरिक्त 14.1 करोड़ गरीब सामनेजाते हैं. यदि आप अरक्षित होने को भी गरीबी की कसौटी मान लेते हैं, तो गरीबी दर में इससे 11.9 फीसदी का इजाफा होता है और अतिरिक्त 41.8 करोड़ गरीब फिर सामने आ जाते हैं. इन सभी कारकों को जोड़ लें, तो एशिया की गरीबी दर बढ़ कर 49.5 फीसदी पर यानी पौने दो अरब लोगों तक पहुंच जाती है. (एशिया और प्रशांत के लिए प्रमुख सूचकांक 2014; एडीबी, अगस्त 2014; मैं 20 अगस्त, 2014 को जारी प्रेस विज्ञप्ति से उद्धृत कर रहा हूं).

(2) अमेरिका में गरीबी : यहां गरीबी की गणना इस हिसाब से होती है कि आय न्यूनतम खाद्य आवश्यकताओं के तीन गुने से कम हो.

कुल गरीबी अनुपात 2012 में 15 फीसदी था और यदि आप अन्य अखाद्य वस्तुओं को जोड़ लें, तो यह 16 फीसदी बैठता है. कुल मिलाकर 4.53 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में रखा गया है.

श्वेत अमेरिकी आबादी में सर्वाधिक गरीब लोग 20 साल से कम उम्र के हैं और सबसे बुजुर्ग सबसे कम गरीब हैं. श्वेतों में दक्षिण के इलाके में सबसे ज्यादा गरीबी की दर है. अश्वेतों और हिस्पानिकों में गरीबी की दर एनएसएस के आंकड़ों के हिसाब से भारत से भी ज्यादा है. यहां गरीबी की गणना साठ के दशक के आरंभ में जब शुरू हुई, तब से सबसे कम गरीबी दर 1973 में 11.1 फीसदी रही. उस वक्त बेरोजगारी की दर 4.9 फीसदी थी. 2012 में बेरोजगारी की दर 8.1 फीसदी थी, जबकि गरीबी की दर 15 फीसदी थी. (सभी अमेरिकी आंकड़े ग्लोबलिस्ट के 23 अगस्त, 2014 अंक से उद्धृत)

गरीबी गणना के निहितार्थ

यहां हम दो परिघटनाएं देख रहे हैं :

(क) गरीबी की रेखा आय के हिसाब से परिवर्तनशील है यानी प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के साथ गरीबी की रेखा भी ऊंची उठती जाती है.

(ख) गरीबी की रेखा अंतरात्मा के हिसाब से परिवर्तनशील है (कांशिएंस इलास्टिक). हम जैसे-जैसे अमीर होते जाते हैं, वैसे-वैसे गरीबों के मामले में भी उदार होते जाते हैं और ऐसा करने की कोशिश करते हैं.

इन दो परिघटनाओं का अंतिम परिणाम भले एक होता हो, लेकिन दोनों भिन्न आयामों की ओर इशारा करते हैं. पहली परिघटना को हम भारत में गरीबी रेखा के विकास के संदर्भ में समझ सकते हैं, जिसने सत्तर के दशक के आरंभ में दांडेकर और रथ से लेकर नब्बे के दशक में तेंदुलकर तक, बरास्ता 1980 में लकड़ावाला, लंबा सफर तय किया है. दूसरा प्रभाव इस बात की एक ज्यादा समावेशी परिभाषा से उपजता है, कि कोई समुदाय अपने गरीब न रहने के संबंध में एक सहनीय जीवन को लेकर क्या विचार रखता है. इसीलिए एमपीआइ को इस आदर्श के अनुकूल विकसित किया गया है कि गरीब सिर्फ पर्याप्त कैलोरी खुराक से ही संतुष्ट न रहे, बल्कि उसके पास वे न्यूनतम सक्षमताएं भी हों, जिनका वह आनंद ले सके. पहला प्रभाव भौतिक रूप से समृद्ध करनेवाला है, जबकि दूसरा प्रभाव क्षमता संवर्धन को संज्ञान में लेता है.

मैं इसीलिए इस बात पर जोर देता हूं कि जिस समाज में गरीबी की रेखा आय के हिसाब से परिवर्तनीय हो वहां गरीबों की संख्याकम करना मुश्किल काम होगा और गरीबी को खत्म करना तो कहीं ज्यादा कठिन होगा. यदि यह आय सापेक्ष परिवर्तनीयता (इनकम इलास्टिसिटी) एक से ज्यादा है, तब जाहिर है कि गरीबों की संख्या आय के साथ बढ़ेगी. यदि आप इसमें अंतरात्मा सापेक्ष परिवर्तनीयता (कांशिएंस इलास्टिसिटी) को जोड़ दें, तब मेरा आग्रह यह होगा कि आप गरीबी को कभी नहीं खत्म कर सकते, क्योंकि जिन क्षमताओं का आनंद गरीबों को देने की हम बात करेंगे, उनकी ऊपरी सीमा तो कोई है ही नहीं.

उपयरुक्त बातों की वैधता को जांचना और उन पर बात करना जरूरी है. इसके बावजूद मेरा दावा है कि मोटे तौर पर ये निष्कर्ष सही हैं. यह दलील भी दी जा सकती है कि मैं यहां गरीबी नहीं, बल्कि असमानता का मसला उठा रहा हूं. आय में कम असमानता की दर वाला कोई समाज समान प्रतिव्यक्ति आय वाले किसी दूसरे समाज की तुलना में कम गरीब हो सकता है. यूरोपीय संघ अपने यहां गरीबी को ऐसे ही परिभाषित करता है कि वहां की मध्यमान आय के 60 फीसदी से कम आय वाले लोग गरीब होंगे, जबकि 40 फीसदी से कम आय वाले अत्यधिक गरीब होंगे. इस तरह स्कैंडिनेविया का कोई समाज एक एंग्लो-सैक्सन समाज के मुकाबले कम गरीब होगा. यदि इसी पैमाने पर बात करनी हो, तब हमें एक ऐसे आय वितरण वाले लोगरिदमिक स्केल की तलाश होगी, जिसका बायां सिरा सपाट हो और जिसके मोड व मीन के बीच ज्यादा दूरी न हो. यदि हमें समानता को भी संज्ञान में लेना हो, तो स्केल के दाहिने सिरे को भी सपाट होना होगा और मीन उसे जहां काटता है, उसकी दूरी बहुत ज्यादा नहीं होनी चाहिए. (पहले एचडीआर में इस हिसाब से जो आंकड़ा प्रस्तावित किया गया वह (1-¬) था, जहां ¬ का मतलब गिनी गुणांक से है और प्रतिव्यक्ति आय है. यह असमानता पर सेन के काम से निकला फॉमरूला था. हाल ही में असमानता की गणना के लिए एचडीआर में कुछ और तरीके अपनाये गये हैं. ऐसा ही एक माप आय में शीर्ष 20 फीसदी से न्यूनतम 20 फीसदी हिस्सेदारी का अनुपात है, जिसे ‘क्विंटाइल रेशियो’ कहते हैं. इसी तरह शीर्ष 10 से न्यूनतम 40 फीसदी आय में हिस्सेदारी का एक मापक पाल्मा सूचकांक के नाम से है. एचडीआर 2014 के मुताबिक भारत का क्विंटाइल सूचकांक 5 था और इसका पाल्मा रेश्यो 14 था. गरीबी अनुपातों में संशोधन के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल किया जा सकता है.)

अगले खंड में मैं फिलहाल क्षमताओं के मापन को दरकिनार रखते हुए गरीबी मानक की भौतिक गणना पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा. इसके लिए मैं विशेष तौर से गरीबी अनुमानों में एडीबी के किए संशोधन की पड़ताल करूंगा.

इसका मतलब क्या है?

गरीबी का खत्म न होना कोई बुरी खबर नहीं है. यह वास्तव में एक अच्छी खबर है, क्योंकि इससे हमारी यह महत्वाकांक्षा प्रतिबिंबित होती है कि गरीबी रेखा से ऊपर रह रहे हम लोगों को वृद्धि में जितना लाभांश मिलता है, उतना ही हमारे बीच रह रहे अत्यधिक निर्धन लोगों को भी मिले. हमें शायद यह करना चाहिए कि प्रत्येक पीढ़ी द्वारा दी गयीपरिभाषा केमुताबिक गरीबों की संख्या का इस कसौटी पर हम पता लगाएं कि उसकी पिछली पीढ़ी में हम क्या हासिल करना चाहते थे. फिर हम यह सवाल पूछ सकेंगे कि हमने पिछली पीढ़ी की कसौटी के मुताबिक कामयाबी हासिल की अथवा नहीं? हो सकता है कि (यह सिर्फ मेरा अंदाजा है) 1971 में दांडेकर/रथ के 15 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के मानक के हिसाब से गरीबों की संख्या में 10 फीसदी की कमी आयी है.

इसके बावजूद एडीबी द्वारा उसकी हालिया रिपोर्ट में किये गये प्रस्ताव के मुताबिक इसे संशोधित करके इसमें बढ़ोतरी किया जाना चिंता का विषय है. क्या एशिया में बीते दो-तीन दशकों की ऐतिहासिक वृद्धि दर के दौरान गरीबी वास्तव में बढ़ी है या फिर ऐसा सिर्फ गरीबी रेखा के मामले में है? क्या एडीबी को यह सवाल उलट कर नहीं पूछना चाहिए था? क्या एशिया में गरीबी इस बार लाये गये तिहरे मानक- यानी खाद्य पदार्थो का आधार मूल्य, उच्च भारिता और निम्न अरक्षितता तीनों को मिला कर- के हिसाब से पचास साल पहले ज्यादा थी या कि अब है?

गरीबी की गणना का काम जब आधिकारिक स्तर पर शुरू हुआ, तो हमने एक ऐसी सहज परिभाषा अपनायी, जिसे सब पर बराबरी से लागू किया जा सकता था. यह परिभाषा न्यूनतम कैलोरी खुराक पर आधारित थी. अमेरिका के कैदियों को छोड़ दें तो और कहीं इसके लिए मानक मौजूद नहीं था. फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने तय किया था कि प्रत्येक अमेरिकी के पास उनकी रोजमर्रा की खुराक में जरूरी कैलोरी उपभोग के लिए पर्याप्त साधन होने चाहिए. यह मानक कैदियों के मुकाबले कुछ कम था, क्योंकि कैद में श्रम भी करना होता था. इसके लिए भोजन टोकरियां तैयार की गयीं और उनकी कीमत तय की गयी. इसके बाद इस संख्या को पारिवारिक बजट में भोजन की हिस्सेदारी (एंजेल कर्व के मुताबिक) से भाग देकर समूची आबादी के लिए गरीबी का मानक आवश्यक आय के संदर्भ में निकाला गया. (पहली मानव विकास रिपोर्ट एक तकनीकी दस्तावेज थी, जिसमें इसके विवरण हैं)

इस मानक को बाद में कई देशों में अपनाया गया और इसकी कई व्याख्याएं मौजूद हैं. सर्वप्रथम, यह सभी आयु, लिंग, स्वास्थ्य, काम और मौसम के हिसाब से सबके लिए समान मानक है. इसमें गणना की इकाई व्यक्ति है न कि परिवार या घर. जाहिर है यह गरीब या अन्यथा परिवारों के प्रेक्षित व्यवहार पर आधारित नहीं था. यह एक सार्वभौमिक पैमाना था. गरीबी से जुड़ी एक धारणा यह है कि गरीब या तो कुपोषित होगा या भुखमरी के प्रति अरक्षित होगा. गरीब न होने का अर्थ इस हिसाब से यह हुआ कि उक्त व्यक्ति के पास पर्याप्त कैलोरी मात्र का भोजन खाने को पर्याप्त साधन उपलब्ध है. एक समान पैमाने से गणना की सुविधा तो हुई, लेकिन साथ ही यह गणना को त्रुटिपूर्ण बनाने में भी सक्षम था. यहां तक कि एक परिवार के भीतर भी पोषण की जरूरतें अलग-अलग होती हैं, जो कि आयु और स्वास्थ्य पर निर्भर है. मसलन, बच्चों को स्तनपान करानेवाली महिलाओं को ज्यादा पोषण की जरूरत होती है. इसी तरह बढ़ते बच्चों को ज्यादा पोषण चाहिए. काम कर रहे युवाओं की जरूरत औरबूढ़े-बुजुर्गो की पोषण आवश्यकताएं भिन्न होती हैं. (लातिन अमेरिकी देशों ने व्यक्ति आधारित परिवर्तनीय मानक अपनाये हैं, देसाई, 1995)

इसके अलावा क्षेत्रगत और कालगत बदलाव भी होते हैं और साथ ही खाद्य पदार्थ की खरीद में अर्थव्यवस्था को भी संज्ञान में लेना होता है. अरक्षितता के मसले को बाद में इसके साथ इसलिए जोड़ना पड़ा, क्योंकि आरंभिक पैमाना त्रुटिग्रस्त था. किसी देश में सभी के लिए एकल मौद्रिक संख्या का होना (और इससे भी बुरा पूरी दुनिया में, जैसा कि विश्व बैंक कहता है) प्रशासनिक कामों को आसान तो बनाता है, लेकिन अवधारणा के स्तर पर यह गड़बड़ी है. आखिर 1.25 डॉलर या 1.51 डॉलर की कोई एक संख्या हर दिक-काल के लिए प्रासंगिक कैसे हो सकती है? गणितीय दृष्टिकोण से देखें तो सटीक अनुमानों से बचना हमेशा बेहतर होता है. इसके बजाय गरीबी अनुमान का एक दायरा कहीं ज्यादा कारगर होता है, जिसके भीतर व्यक्तियों, घरों और परिवारों की जरूरत का सामाजिक, क्षेत्रगत और प्राकृतिक परिवर्तन परिलक्षित हो सके. यदि अवधारणा के स्तर पर हमें सार्थक बात करनी है, तो फिर किसी एक अथवा कई संख्याओं के इर्द-गिर्द हमारे पास एक मोटा दायरा होना चाहिए और उस दायरे पर हमें भरोसा भी होना चाहिए.

किसी समुदाय के भीतर उपभोग के वास्तविक अनुभवों के भी मानक अलग से हो सकते हैं. पर्याप्तता की धारणा दरअसल शारीरिक नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक है. हो सकता है कि व्यक्तियों में यह परिवर्तनीय हो, लेकिन शारीरिक आधार पर हम कम सीमा तय कर दें. इतना ही नहीं, किसी समुदाय के भीतर अधिकतर परिवारों में उपभोग के स्तर की परिवर्तनीयता एक सामान्य अनुभव के रूप में सामने आ सकती है. अधिकतर परिवार जो समृद्घ नहीं हैं, उन्हें बीमारी आदि में झटका लग सकता है, क्योंकि तब उन्हें ज्यादा व्यय की जरूरत होती है. यह भी संभव है कि लोग समय-समय पर गरीबी रेखा से बाहर और फिर उसके भीतर आवागमन करते रहते हों और यह परिघटना साल दर साल या एक साल के भीतर भी कई बार घट सकती है.

एडीबी का गरीबी का मानक क्या है?

एडीबी का मानक रूजवेल्ट द्वारा प्रतिपादित मूल कसौटी के संदर्भ में कहता है कि किसी परिवार/व्यक्ति/घर को गरीब की श्रेणी में नहीं होने के लिए जरूरी है कि उसके आय/व्यय का स्तर इतना हो कि वह हर उस झटके को समाहित कर सके, जिसका पूर्वानुमान आसानी से लग सकता हो (एडीबी की प्रेस विज्ञप्ति ‘प्राकृतिक आपदाओं, वित्तीय संकट, बीमारी या अन्य नकारात्मक झटकों’ की सूची देती है).

यहां आय और धन की धारणाओं के बीच का एक भ्रम मौजूद है. जॉन हिक्स ने अपनी पुस्तक वैल्यू एंड कैपिटल में आय की जो परिभाषा दी थी, वह अब तक सैद्धांतिक तौर पर सबसे ज्यादा संतोषप्रद बात है. मैं उन्हें उद्धृत करता हूं-

‘व्यावहारिक मामलों में आय की गणना का उद्देश्य लोगों को इस बात का एक संकेत देना है कि वे खुद को दरिद्र बनाये बगैर कितनी राशि का उपभोग कर सकते हैं़़़ हम एक व्यक्ति की आय उस अधिकतम मूल्य के तौर पर परिभाषित करते हैं, जितना वह एक सप्ताह में उपभोग कर सकता हैऔर तब भीयह उम्मीद करता रह सकता है कि सप्ताह के अंत में वह उतना ही ठीक रहेगा जितना शुरुआत में था.’ (हिक्स, 1939, पृष्ठ 172)

यह परिभाषा अग्रगामी है. यह आय को धन के सापेक्ष भी परिभाषित करती है. अवधि के आरंभ में परिसंपत्तियों का मूल्य एक अनुमान दे देता है कि अधिकतम कितने का उपभोग किया जा सकता है (भले उसकी जरूरत न पड़े), ताकि अवधि के अंत में परिसंपत्तियों के मूल्य में कोई बदलाव न आने पाये. आप कम उपभोग करके और बचा कर अपनी परिसंपत्तियों का मूल्य बढ़ा सकते हैं. आप आय से ज्यादा उपभोग करके परिसंपत्तियों का मूल्य घटा भी सकते हैं. मोटे तौर पर हिक्स यहां उस चीज को परिभाषित कर रहे हैं, जिसे बाद में स्थायी आय का नाम दिया गया. यह ध्यान देनेवाली बात है कि चूंकि यह परिभाषा किसी व्यक्ति की अपेक्षाओं के संदर्भ में अग्रगामी है, इसलिए इसका वास्तविक परिणाम झटकों के चलते काफी हद तक अलग भी हो सकता है. मसलन, एक किसान ने जो बोया है, उसके मद्देनजर बारिश की अपेक्षा और बाजार में अपना उत्पाद बेचने की आसानी को जोड़ कर वह एक निश्चित आय की उम्मीद कर सकता है. हो सकता है कि वास्तविक परिणाम अपेक्षित परिणाम से काफी नीचे रह जाये. एडीबी के मानक से देखें तो किसान गरीब होगा, हालांकि प्रत्याशा के हिसाब से वह गरीब नहीं होगा.

एडीबी जिस तरीके से गरीबी को परिभाषित करना चाहता है, उसका आशय यह बनता है कि एक व्यक्ति/परिवार/घर को गरीब न होने के लिए एक स्थायी आय की जरूरत होगी, जो अनिश्चय की तमाम आशंकाओं के अंतर्गत उपभोग की जरूरतों से तय एक निश्चित स्तर से ऊपर हो. इस तरह वह आपकी मौजूदा आय ही नहीं है, बल्कि मोटे तौर पर वह धन है, जो आपको उन तमाम झटकों के खिलाफ सुरक्षित रखता हो, जो इस कसौटी की परिभाषा में आते हैं. यह बात सैद्धांतिक स्तर पर दुरुस्त लग सकती है, लेकिन दैनिक या साप्ताहिक व्यवहार के संदर्भ में यह बहुत कठिन काम है. हो सकता है कि परिवार और व्यक्ति अपनी आय या परिसंपत्तियों में एक अवधि के दौरान उतार-चढ़ाव को महसूस करते हों, उसके बावजूद व्यय करने के न्यूनतम मानक को पूरा कर रहे हों, जिसके चलते पर्याप्त पोषण की कसौटी पर वे खरे उतरें, जिसमें सामुदायिक औसत के आधार पर गणना किया गया अखाद्य खर्च भी शामिल हो.

इसे दूसरे तरीके से ऐसे रखा जा सकता है कि एडीबी गरीबी की रेखा को मध्यमान आय के आसपास मानता है, चूंकि एशिया की आधी आबादी उससे नीचे है. यदि वास्तव में ऐसा ही है तो फिर एडीबी को मध्यमान आय को ही गरीबी की मानक रेखा मान लेना चाहिए, जैसा यूरोपीय संघ ने अपने यहां 60 फीसदी मध्यमान आय को गरीबी की कसौटी रखा है. सवाल उठता है कि क्या इस स्तर पर गरीबी की कसौटी को तय किया जाना ठीक होगा, जिसे वास्तव में न्यूनतम होना चाहिए था?

आय और धन के स्केल के निचले हिस्से में जी रहे परिवारों के क्या अनुभव हैं? हम अनुभव से जानते हैं कि आय के मुकाबले धन कावितरण कहीं ज्यादा असमान है. कुछ साल पहले अकाल के प्रभावों पर अपने अध्ययन में अमृता रंगास्वामी ने पाया था कि परिवार एक खराब फसल के साल में खुद को बचाये रख सकते हैं, क्योंकि निर्धनतम के पास भी बेचने के लिए बरतन-हांडी और आभूषण होते ही हैं. इसके ठीक बाद दूसरा अकाल तबाही ला सकता है. वजह यह थी कि उनके पास अपना बचाया कुछ भी नहीं बच सका. अरक्षितता दरअसल नकारात्मक झटकों से निपटने के लिए मौजूद परिसंपत्तियों के अभाव का एक माप है. (रंगास्वामी, 1985) बिहार के लोगों को खास कर बाढ़ और सूखे आदि का अनुभव रहा है. बीमारी या महामारी भी एक मसला है और चूंकि अधिकतर देशों में प्रभावी स्वास्थ्य बीमा नहीं है, लिहाजा गंभीर चिकित्सा की मांग करनेवाला बीमारी का एक दौर भी मध्यवर्गीय परिवारों तक के जीवन स्तर को प्रभावित कर देता है. दिक्कत यहीं है. सवाल यह है कि क्या गरीबी के स्तर को इस तरह

परिभाषित किया जाना चाहिए कि वह सभी चरम स्थितियों को कवर कर सके?

निष्कर्ष

कई और सवाल उठाये जाने अभी बाकी हैं. हमारा लक्ष्य यह है कि गरीबी न रहे और साथ ही गरीबी की रेखा लगातार ऊपर की ओर उठती रहे. इस अर्थ में गरीबी के खिलाफ जंग कभी न खत्म होनेवाली एक जंग है. हमारे लक्ष्य की यही पहचान होनी चाहिए. कोई भी अर्थव्यवस्था, जो गरीबी के उपशमन का दावा करती हो, वह इस लक्ष्य के अभाव में नाकाम हो रही होगी.

एक वैकल्पिक रणनीति यह है कि मध्यवर्ती दायरों में रहा जाये और कई मील के पत्थरों को तय कर लिया जाये. एक निश्चित मात्र में कैलोरी को मानक बनाये, उसमें सुधार करें ताकि चिकित्सीय व अन्य कसौटियों पर प्रति व्यक्ति और अन्य आधारों पर न्यूनतम से होनेवाले विचलनों को इसमें समाहित किया जा सके, जैसा कि लातिन अमेरिका में होता है. यह सुनिश्चित करें कि आपने जो मानक तय किया है, उसे इस हद तक हासिल किया जा सके कि इससे नीचे पांच फीसदी से भी कम लोग रह जायें. इसके बाद आप उन पांच या दस फीसदी निचले पायदान पर पड़े लोगों को नकद हस्तांतरण कर सकते हैं.

एक बार यह मंजिल हासिल करने के बाद अगला चरण तय करें और उसे हासिल करें. ऐसा करते-करते जब प्रक्रिया नियंत्रण से बाहर निकल जाये, तब गरीबी उन्मूलन में अपनी उपलब्धि की गणना करें और यह सवाल पूछें कि न्यूनतम पायदान से हम कितना ऊपर आ चुके हैं और पिछले या उसके पिछले पायदान से हम कितने ऊपर हैं. यह कवायद नीति-निर्माता के लिए एक ठोस काम तय कर सकेगी. इसका कोई अर्थ नहीं बनता कि आप न्यूनतम कैलोरी मानक से ऊपर बढ़ कर तेंदुलकर के मानक तक और फिर उसके ऊपर के मानकों तक पहुंचते जायें, जबकि कुल मिला कर यह कवायद नाकामी का ही बोध देती रहे.

अंत में, हमें सामान्य गरीब और कुछ कम गरीब परिवारों की असल जिंदगियों के बारे में भी अध्ययन करने की कोशिश करनी चाहिए. देखिए कि आखिर वे झटकों से कैसे निपटते हैं. हमारे बीच जितने फर्क हैं, वैसे ही फर्कगरीब परिवारों के बीचभी होते हैं. सभी को एक झटके में एक संख्या तक लाकर समेट देना नौकरशाही के लिए आंकड़े छापने के लिहाज से आसान काम हो सकता है, लेकिन उन जिंदगियों को बेहतर तभी बनाया जा सकता है, जब हम विस्तार से समङों कि वे दरअसल कैसे जी रहे हैं. हम वास्तव में इस बारे में पर्याप्त जानते ही नहीं हैं कि गरीब (और उससे कम गरीब, लेकिन उतना ही जरूरतमंद) आदमी तमाम बदलावों के बावजूद कैसे खुद को बचाये रख पा रहा है और जिये जा रहा है. ये विषय बहुत नाजुक हैं और बहुत जटिल हैं. इन्हें किसी एक संख्या में कैद नहीं किया जा सकता.

(अनुवाद : अभिषेक श्रीवास्तव)

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