शिक्षा को नवोन्मेषी बनाने की चुनौती- गिरीश्वर मिश्र

आधुनिक भारत में विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा का आरंभ हुए एक शताब्दी से अधिक का समय बीत चुका है। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसे प्रोत्साहन मिला और धीरे-धीरे सरकार द्वारा विश्वविद्यालय, कॉलेज और विभिन्न प्रकार के ‘प्रोफेशनल’ शिक्षा देने वाले तकनीकी, मेडिकल और प्रबंधन के संस्थान खुलते चले गए। शुरू में ब्रिटेन और बाद में अमेरिका से उधार लिए गए एक बंधे-बधाए सांचे में शिक्षा का विस्तार होता गया। उधारी के इस ज्ञान के पैकेज में विषयवस्तु, विचार और अध्ययन विधि सब कुछ शामिल था। हमने औपनिवेशिक मानसिकता के चलते सामाजिक विज्ञानों में भी यूरो-अमेरिकी ज्ञान को सार्वभौमिक और निरपेक्ष मान लिया और उसे ही अंतिम सत्य मानने की प्रवृत्ति पाल ली।

एक तरह से उस आयातित पश्चिमी ज्ञान और सिद्धांत को भारत में जांचना ही शोध का काम बन गया। नतीजतन ज्ञान के नवोन्मेष की संभावना जाती रही और हम केवल अनुकरण के काम में लगे रहे। देशज ज्ञान की ओर हमने नजर ही नहीं डाली और तिरस्कार करते हुए उसके साथ कोई सार्थक रिश्ता नहीं जोड़ सके। ज्ञान के क्षेत्र में हम परनिर्भर होते चले गए और सृजन के बदले उपलब्ध ज्ञान को दोहराना ही हमारा शोध-लक्ष्य बनता गया। फलतः शोध प्रकाशन की मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से भारत पिछड़ता चला गया।

प्रायः उच्च शिक्षा सार्वजनिक उपक्रम रही है और उच्च शिक्षा में सरकारी निवेश की भारी कमी रही है, जिसके चलते अधिकांश विश्वविद्यालय और महाविद्यालय अध्यापकों की कमी, पुस्तकालयों की दुरावस्था और आवश्यक उपकरण आदि की दृष्टि से वंचित और उपेक्षित बने रहे हैं। राज्य का मसला होने के कारण उच्च शिक्षा की रीति-नीति के लिए राज्य स्वतंत्र हैं और अध्यापकों की सेवा की शर्तें और विधान एक राज्य से दूसरे में अलग हैं। उदाहरण के लिए, अध्यापक किस आयु में, कब सेवानिवृत्त होते हैं, यह राज्य विशेष पर निर्भर करता है। आज अधिकांश विश्वविद्यालय बढ़ती छात्र संख्या के साथ घटती अध्यापक संख्या से जूझ रहे हैं। प्रवेश देना और परीक्षा कराना ही उनका मुख्य कार्य हो गया है। इसके साथ ही अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप से विश्वविद्यालय का शैक्षिक जीवन त्रस्त रहता है। ऐसे माहौल में अध्ययन-अध्यापन की श्रेष्ठता की संभावना सीमित हो जाती है। पिछले कुछ वर्षों से इस स्थिति में कुछ बदलाव निजी संस्थानों के कारण आया है। ज्यादातर ये व्यापार के तर्ज पर अमीर घरानों द्वारा आसानी से आर्थिक लाभ कमाने के लिए चलाए जा रहे हैं। इस परिदृश्य में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में उनकी गुणवत्ता और उपयोगिता को सुरक्षित रखना कठिन हो रहा है।

आज देश की जनसंख्या में दर्ज हो रही युवावर्ग की बढ़ती संख्या भी शिक्षा-व्यवस्था पर भारी दबाव बना रही है। यह युवा वर्ग भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षेत्रों से आता है, जिनकी जरूरतें भी अलग-अलग होती हैं। पर उन्हें देने के लिए हमारे पास पाठ्यक्रमों में कोई विविधता नहीं है। हुनर या कुशलता को लेकर उच्च शिक्षा के केंद्र विशेष उत्साहित नहीं रहे हैं और आज भी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और उस धारा से आगे आने वाले छात्रों के सामने बहुत कम विकल्प होते हैं। इसी समस्या का एक पहलू शिक्षाका माध्यम है। जहां अंग्रेजी माध्यम को अक्सर मानक और प्रामाणिक माना जाता है, वहीं हिंदी समेत अन्य गैर-अंग्रेजी भारतीय भाषाओं को विचलन माना जाता है।

उच्च शिक्षा में सुधार के लिए बने आयोगों और समितियों द्वारा समय-समय पर संस्तुतियां की गईं और उनमें बहुत कुछ उपयोगी भी है। पर हमारी वरीयता सूची में शिक्षा बहुत नीचे रही है और हम अभी तक उन संस्तुतियों पर समग्रता में विचार न कर सके। तात्कालिक जरूरतों के मुताबिक जरूर कुछ करते चले गए। इस तरह के बेतरतीब हस्तक्षेपों के चलते एक ओर बेरोजगार शिक्षितों की बड़ी संख्या पैदा हो रही है, दूसरी ओर अनेक पदों के लिए योग्य व्यक्तियों की कमी भी बनी हुई है। आज ऐसे बहुतेरे लोग मिल जाएंगे, जो डिग्री होने के बावजूद अपेक्षित योग्यता और कौशल न रखने के कारण नौकरी पाने में विफल रहते हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा, नौकरी, ज्ञान और कौशल के आपसी संबंधों पर गौर करें, तो लगता है कि शिक्षा के प्रति हमारी कामचलाऊ नीति पर गंभीर विचार बेहद जरूरी हो गया है और उसमें बदलाव लाना अनिवार्य है। भूमंडलीकरण के समय में एक ओर शिक्षा का नया उभरता वैश्विक परिवेश है, तो दूसरी ओर देश के सांस्कृतिक स्वभाव और उसकी जरूरतों� की अपनी मांगें हैं। उच्च शिक्षा की खाई को पाटने के लिए हमें नए ढंग से देखना चाहिए। सूचना और संचार की बदलती तकनीकी से भी इसे जोड़कर देखना जरूरी हो गया है। इसकी सहायता से शिक्षा का लाभ सही, प्रभावी ढंग से व्यापक क्षेत्र में पहुंचाने में सुविधा होगी।

आज की सबसे बड़ी चुनौती है कि हम शिक्षा को किस तरह सृजनधर्मी बनाएं, क्योंकि शिक्षा ज्ञान का केवल पुनरुत्पादन ही नहीं है। उसमें जिज्ञासा, प्रश्नाकुलता, कल्पना और मौलिक चिंतन की संभावना होनी चाहिए। इस दृष्टि से चिंतन की भाषा का विशेष महत्व है। अंग्रेजी को हमने चिंतन की भाषा बना रखा है। हिंदी और अन्य भाषाएं शिक्षा का माध्यम बन रही हैं, पर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। चूंकि भाषा केवल अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं, बल्कि यथार्थ को सोचने, समझने और रचने का अवसर भी देती है, इसलिए भाषायी दुर्बलता कल्पनाशक्ति को भी बाधित करती है। वास्तविक अर्थों में शिक्षा व्यक्ति के लिए जीवन पर्यंत चलने वाला संस्कार है, जिसमें मन और शरीर, दोनों का परिष्कार होता रहता है। व्यक्तित्व के निर्माण और परिवेश के प्रति दायित्व के साथ जीने में समर्थ बनाने वाली शिक्षा ही मौजूदा विसंगतियों और जड़ता से मुक्ति दिला सकेगी।

(महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति)

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