शिक्षकों की अनुपस्थिति का एक और प्रमुख कारण है उनको अन्य सरकारी कार्यों, जैसे चुनावों में लगा देना। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों में अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों की संख्या 11 से 30 प्रतिशत के बीच में है। एक शोध के मुताबिक, शिक्षकों की अनुपस्थिति से भारत को सालाना लगभग 1.5 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान पर बहुत खर्च किया है। यह खर्च जुटाने के लिए अतिरिक्त कर भी लगाया गया। पर इस अभियान का मूल उद्देश्य, जो शिक्षा के आधारभूत ढांचे और उसकी गुणवत्ता को बेहतर बनाना था, पूर्ण नहीं हो पाया है।
शिक्षा पर होने वाले खर्च का एक बड़ा हिस्सा शिक्षकों के वेतन पर खर्च होता है। ऐसे में, बड़े पैमाने पर शिक्षकों की अनुपस्थिति का सीधा मतलब है, बहुमूल्य सार्वजनिक धन का दुरुपयोग। विश्व बैंक के एक शोध के अनुसार, भारत के सरकारी स्कूलों के औचक निरीक्षण के दौरान लगभग 25 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित पाए गए, और जो उपस्थित थे, उनमें से भी केवल आधे ही कक्षाओं में पढ़ाते मिले। शिक्षकों की अनुपस्थिति का आंकड़ा महाराष्ट्र में लगभग 15 प्रतिशत था, जबकि झारखंड में 42 फीसदी। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि वेतन की कमी या अधिकता का शिक्षकों की अनुपस्थिति से कोई संबंध नहीं है। निजी स्कूलों में अनुपस्थिति की समस्या न के बराबर है।
वर्ष 2010 में एमआइटी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों पर जब कैमरों से निगाह रखी गई और उनके वेतन को उनके काम करने के वास्तविक दिनों से जोड़ दिया गया, तो अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों की संख्या में लगभग 21 प्रतिशत की कमी आई। जाहिर है, सरकारी स्कूलों का बढ़िया वेतन और स्थायी नौकरी की गारंटी भी शिक्षकों के इस आचरण के लिए जिम्मेदार है। अगर उनके अध्यापन कौशल को छात्रों की प्रगति से जोड़ दिया जाए और कक्षाओं में उनकी मौजूदगी के आधार पर ही वेतन तय हो, तो उनकी गैरमौजूदगी कम होगी। इसके अलावा निरीक्षण के बेहतर तरीकों और कठोर अनुशासन के जरिये भी इस समस्या से निपटा जा सकता है। हालांकि इन सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षकों कोउनकी जिम्मेदारी और उनके कार्य की महत्ता का एहसास दिलाया जाए।