गौरतलब है कि कैग की यह रिपोर्ट ‘पहले आओ-पहले पाओ’ की नीति पर कोयला ब्लॉकों के आवंटन से हुई हानि को गिनाती है। तुलनात्मक अध्ययन के रूप में इसके सामने प्रतिस्पर्धी नीलामी नीति थी। समय-समय पर और अब भी कोर्ट ने यही पुख्ता किया है कि मामला गंभीर है और अनियमितताएं हुई हैं। अब तक की अदालती प्रक्रिया के बीच कोर्ट में गलत बयानबाजी, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल का इस्तीफा, फिर अश्वनी कुमार का कानून मंत्री के पद से इस्तीफा जैसे मोड़ आए, जिससे यूपीए सरकार की फजीहत हुई। अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि कोयला आवंटन के मामले में शीर्ष स्तर के निर्णय गलत व पक्षपातपूर्ण थे। इससे न केवल देश की राष्ट्रीय प्राकृतिक संपदा का गैर-कानूनी दोहन हुआ, बल्कि इससे आज की और आने वाली पीढ़ियां भी प्रभावित होंगी। दूसरी बात, इस ‘गैर-कानूनी स्थिति’ के लिए कोई एक केंद्र सरकार नहीं, बल्कि लगातार पांच केंद्र सरकारें किसी न किसी रूप में जिम्मेदार हैं। यह स्थिति बताती है कि हमारे यहां सरकार बदलती है, व्यवस्था नहीं। शासन का वही ढर्रा चलता रहता है। साल 1993 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार थी, तो उसके बाद एच डी देवेगौड़ा और आई के गुजराल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकारें आईं और उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार छह साल शासन में रही। एनडीए के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार दस साल रही। इस दौरान कई राजनीतिक दलों के कोयला मंत्री रहे। पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख ने अपनी किताब क्रूसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर ? कोलगेट ऐंडअदर्स ट्रथ्स में उन कोयला मंत्रियों के नाम भी गिनाएं हैं, जिन पर सवाल उठते हैं। वह साफ तौर पर बताते हैं कि कैसे उनके द्वारा प्रस्तावित नीति को एक मंत्री ने खारिज कर दिया था।
तीसरी बात, यह फैसला बताता है कि मूल समस्या शासन में है। सत्ता द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बना दी गई है कि इसमें जिसके पास लाठी है, भैंस उसी की है। ऐसे में, कायदे-कानून, दिशा-निर्देश और उचित मानदंडों से किसी का कोई साबका नहीं रहता। इस सूरत में वैसे पूंजीपति फायदा उठाते हैं, जिनका एकमात्र ध्येय पूंजी कमाना और वाणिज्यिक दोहन करना है। आर्थिक विकास के नाम पर पूरी इंडस्ट्री और इकोनॉमी को जो चूना लगता है, वह तो चिंता का बड़ा विषय है ही, साथ में शासन-तंत्र और राजनीति में भ्रष्टाचार और अनियमितताएं का प्रवेश होना भी गंभीर बात है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने कोयला ब्लॉकों के आवंटन को गैर-कानूनी बताया है, तब सवाल यह उठता है कि क्या ये सभी आवंटन रद्द कर दिए जाएंगे? अंदरखाने में यह चर्चा तेज है कि यदि ऐसा कुछ होता है, तो एक बड़ा आर्थिक नुकसान तुरंत दिखेगा, यानी शेयर बाजार धड़ाम से गिरेगा। कंपनियां यह दावा कर रही हैं कि उनके एक लाख करोड़ रुपये इसमें लगे हुए हैं। ऐसे में, इसे रद्द नहीं किया जा सकता, लेकिन इससे राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों पर गहरा बुरा असर पड़ने की आशंका है। क्या यह जोखिम केंद्र की सत्ता में मौजूद राजनीतिक पार्टियां उठाएंगी? ऐसी भी बातें हो रही हैं कि कोर्ट बिजली परियोजनाओं के लिए सुरक्षित रास्ता दे सकता है। यह भी संभव है कि जो डिफॉल्टर हैं, उनकी अन्य संपत्तियां जब्त कर ली जाएं। लेकिन क्या प्रभावशाली लोगों के खिलाफ नई सरकार यह सख्त कदम उठा पाएगी?
बहरहाल, इस मोड़ पर आगे तीन क्षेत्रों की स्थिति स्पष्ट हो रही है। पहली, न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद इसकी पूरी गुंजाइश है कि आवंटन प्रक्रिया के लिए उचित दिशा-निर्देश तय हों, जिनके पालन में पारदर्शिता और निष्पक्षता की महत्वपूर्ण शर्ते होंगी। दूसरी, जैसा कि कोर्ट ने कहा है कि जांच समिति और सरकारी व्यवस्था, दोनों माध्यमों से हुए आवंटन गैर-कानूनी और मनमाने हैं और आगे की कार्रवाई पर फैसले के लिए सुनवाई की जरूरत है। इसलिए इस संबंध में कोर्ट द्वारा तय तारीख एक सितंबर का इंतजार सभी पक्षों को रहेगा। तीसरी और अंतिम, इतने बड़े कालखंड से जुड़ा यह फैसला कांग्रेस पार्टी के लिए ‘फेस सेविंग’ भी है, क्योंकि साल 1993 से लेकर 2010 के बीच भाजपा और अन्य दलों का भी शासन रहा। इसलिए इसका एक पहलू यह भी है कि भाजपा इस मुद्दे को बहुत आक्रामक तरीके से भुना नहीं पाएगी। हालांकि, इस बीच कांग्रेस के हाथों में 13 साल सत्ता रही और भाजपा के पास छह साल। इसलिए किसी को भी इस मामले का राजनीतिक लाभ मिलता नहीं दिख रहा है, बेशक भारतीय जनता पार्टी कुछ कम बुरी स्थिति में है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)