सरकार को फंड तय समय पर जारी करने चाहिए, ताकि उत्पीड़ित तबके का कोई छात्र पढ़ाई से वंचित न हो। साथ ही, साथ यह ध्यान रखने की भी जरूरत है कि शिक्षा संस्थानों के कर्ताधर्ताओं एवं सरकारी अधिकारियों की साठगांठ से फर्जी लाभार्थी खड़ा कर की जाने वाली धोखाधड़ी पर अंकुश लगे। पिछले महीने मध्य प्रदेश से आई खबर इसी की ताईद करती है।
समय-समय पर ऐसे मामले उजागर होने के बावजूद इस पर अंकुश नहीं लग पाता। राजस्थान में डेढ साल पहले सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता विभाग की जांच के बाद छात्रवृत्ति घोटाले में लिप्त 72 कर्मचारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया गया था। इन पर आरोप था कि वर्ष 2005-2009 के दौरान जयपुर एवं अन्य जिलों के कई कॉलेजों में कॉलेज संचालकों की मिलीभगत से उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों की छात्रवृत्ति में करोड़ों रुपये का गबन किया।
उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा एक स्कूल की प्रिंसिपल एवं प्रबंधक को दलित छात्रों की छात्रवृत्ति हड़पने के आरोप में सजा सुनाई गई थी। इन दोनों ने राज्य सरकार द्वारा वर्ष 1996-97 में अनुसूचित तबके के छात्रों के लिए प्रदत्त छात्रवृत्ति� की 61 हजार रुपये से अधिक की रकम हड़प ली थी।
इसी तरह महाराष्ट्र के समाज कल्याण महकमे के कर्मचारियों द्वारा समय पर जाति प्रमाणपत्र जारी न करने की लापरवाही के चलते 2012 में नागपुर क्षेत्र में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों के दस हजार से अधिक छात्र अपनी पसंद के प्रोफेशनल कोर्सेज में प्रवेश नहीं ले सके थे। इसके पीछे निजी इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेजों की समाज कल्याण विभाग के साथ मिलीभगत थी।
संयुक्त राष्ट्र की वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट के मुताबिक, अनुसूचित तबके के छात्रों के साथ स्कूलों में अक्सर अपमानित करनेवाले अंदाज में व्यवहार होता है। अध्यापकों द्वारा अनुसूचित तबके के छात्रों की उपेक्षा, उन्हें परीक्षा में जबरन फेल करना, विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इनकी सहायता से इन्कार करने से लेकर मिड डे मिल में बैठने की व्यवस्था और भोजन बांटने में भेदभाव को अमल में लाया जाता है। इसका असर छात्रों द्वारा स्कूली शिक्षा अधबीच में छोड़ देने में दिखता है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोशिशें होनी ही चाहिए, जिनसे वंचित तबके के हक पर डाका डालने की प्रवृत्ति पर लगाम लगे।