योजना आयोग को एक ऐसी संस्था के रूप में गढ़ा गया, जिसके ऊपर रोजमर्रा के प्रशासन का भार न हो और साथ ही वह सरकार के लगातार संपर्क में भी रहे। सरकार और आयोग में रिश्ता व निर्भरता अटूट बनी रहे, इसके लिए प्रधानमंत्री को योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया गया और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को कैबिनेट की बैठक के लिए स्थायी आमंत्रित का दर्जा दिया गया। यह एक राजनीतिक कदम था और इतिहास के उस दौर की जो जरूरत थी, उसे पूरा करने के लिए सबसे अच्छा कदम भी था। इसके साथ ही एक और चीज यह हुई कि योजना आयोग देश के सबसे अच्छे बुद्धिजीवियों का मंच बनकर उभरा। उनकी बहस कभी-कभी तीखी भी हो जाती थी, लेकिन वह योजना आयोग और सरकार, दोनों की विचारधारा व सोच पर असर डालती थी। भविष्य पर असर डालने वाला योजना आयोग का सबसे महत्वपूर्ण क्षण वह था, जब उसने दूसरी पंचवर्षीय योजना का खाका तैयार किया। इससे योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की नींव तैयार हुई, जिसके आधार पर आगेचलकर सार्वजनिक क्षेत्र की इमारत खड़ी हुई। इस सार्वजनिक क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में सर्वोच्च जगह दी गई। सोवियत संघ की योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के अनुभवों से प्रेरणा लेकर इसे तैयार किया गया था, इसी आधार पर अगले दो दशक की विकास संबंधी रणनीति का खाका तैयार किया गया।
योजना आयोग का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव था, 1980 में बनी छठी पंचवर्षीय योजना। तब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आई थीं और यह साफ दिख रहा था कि उनमें एक तरह का वैचारिक बदलाव आया है। अब वह पहले की तरह बाजार की ताकतों के खिलाफ नहीं थीं। इसी का नतीजा था छठी पंचवर्षीय योजना में दिखा वैचारिक बदलाव। इस योजना में भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण से मुक्त करने की कोशिश की गई और निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों को एक ज्यादा बड़ी भूमिका दी गई। यहीं पर भारतीय अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक बदलाव की नींव भी तैयार हुई। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने इस प्रक्रिया को और भी तेज किया। यही प्रक्रिया आगे चलकर 1991 में एक नए रूप में दिखाई दी, जिसे हम बिग बैंग रिफॉर्म या आर्थिक सुधारों का विस्फोट कहते हैं। इसके बाद बाजार आधारित अर्थव्यवस्था लगातार आगे बढ़ने लगी। इसकी प्रगति से योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की जरूरत कम होने लगी। इसलिए योजना आयोग ने अपना तरीका बदला, तो किसी को हैरत नहीं हुई। अब यह नतीजों के लिए योजना बनाने की बजाय दिशा-निर्देश तैयार करने लग गया। काम के साथ ही योजना आयोग का रूप भी बदलने लग गया। अब वह राष्ट्रीय विकास परिषद के सचिवालय का काम करता दिखाई देने लगा। परिषद वह संस्था है, जो केंद्र-राज्य रिश्तों को जोड़ने का काम करती है।
यह एक ऐसी भूमिका है, जो आज भी बहुत महत्वपूर्ण है। खासतौर पर दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों के मामले में, जिनके बारे में यह माना जाता है कि इनकी अगुवाई राज्य करेंगे। यह एक ऐसा दौर है, जब केंद्र सरकार और राज्यों के बीच तालमेल बिठाना बहुत महत्वपूर्ण होगा, मसलन गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स जैसे विचारों को लागू करने के मामले में। अपने चुनाव अभियान के दौरान और उसके बाद भी नरेंद्र मोदी ने जो भाषण दिए, उनसे यही लगता है कि जो कोई भी संस्था योजना आयोग की जगह लेगी, उसे केंद्र-राज्य संबंध में तालमेल बिठाने की इस भूमिका का निर्वाह करना होगा। यानी उसी भूमिका को, जिसे आज योजना आयोग निभा रहा है। यहां पर एक और बात का जिक्र बहुत जरूरी है- फ्रांस ने अपने योजना आयोग को विदा कर दिया था, लेकिन एक दशक बाद ही उसे फिर से योजना आयोग बनाना पड़ा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)