बलात्कार का कोई भी मामला निस्संदेह संगीन होता है। 12 या 18 वर्ष के किशोर द्वारा किया गया बलात्कार या हत्या का मामला एक वयस्क द्वारा किए गए ऐसे ही अपराध से कम जघन्य नहीं होता। दोनों तरह के मामलों में पीड़िता जिस पीड़ा से गुजरती है, वह भयावह होती है। इसमें शक नहीं कि अपराधी चाहे जितना भी नाबालिग हो, उसे सजा मिलनी चाहिए। मगर सवाल यह है कि किस तरह का दंड किशोर अपराधियों को सही रास्ते पर ला सकता है और किस तरह का दंड उसके आपराधिक व्यवहार को बढ़ावा दे सकता है?
मौजूदा किशोर न्याय कानून में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि के मद्देनजर 18 वर्ष तक के बच्चों को नाबालिग माना गया है। यह एक भ्रम है कि किशोर न्याय कानून नाबालिग को दंडित करने से रोकता है। सच यह है कि किशोर न्याय कानून सुनिश्चित करता है कि नाबालिग आरोपी के खिलाफ मामले वयस्कों की अदालत में नहीं चलेंगे और उन्हें वयस्कों की जेल में नहीं रखा जाएगा। अगर वे दोषी पाए जाते हैं, तो किशोर सुधार गृह में सजा काटेंगे। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि नाबालिग अपराधियों को वयस्क अपराधियों के साथ रखना उन्हें अपराध से दूर करने के बजाय अपराध की तरफ ही धकेलेगा।
‘सामान्य समझ’ का तर्क है कि ‘बलात्कार एक वयस्क अपराध है’ और अगर कोई बलात्कार करने में सक्षम है, तो उसे दंडित किए जाने लायक वयस्क (परिपक्व) होना चाहिए। यह ‘परिपक्वता’ की गलत समझ है। यौन आवेग और हत्या या बलात्कार करने की क्षमता दस वर्ष की उम्र में ही किसी बच्चे में विकसित हो सकती है। लेकिन तथ्य यह है कि यह क्षमता ‘परिपक्वता’ को प्रकट नहीं करता है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह माना जाता है कि किशोरों में मस्तिष्क का बाहरी हिस्सा, जो योजना बनाने, फैसले लेने, जोखिम का सही आकलन करने और दीर्घावधि के लक्ष्यों को निर्धारित करने की क्षमता पर नियंत्रण करता है, पूरी तरह से विकसित नहीं होता है। मुद्दा यह है कि जो ‘सख्त कानून’ वयस्कों को हत्या और बलात्कार करने से रोकने में विफल है, वह निश्चित रूप से ऐसे लोगों को अपराध करने से नहीं रोक पाएगा, जिनमें परिणाम का आकलन करने की क्षमता कमजोर है।
प्रश्न है कि किशोर हत्या और बलात्कार करना कहां से सीखते हैं? वे अपराधी या हिंसक बनकर जन्मनहीं लेते। एक समाज के रूप में हम उन्हें जो माहौल उपलब्ध कराते हैं, वे वहीं से यह सब सीखते हैं। बलात्कार के 94 फीसदी मामले घरों के भीतर या निजी जगहों पर विश्वसनीय लोगों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। हमारे देश में हर तीन में दो बच्चा परिवार में या स्कूल में यौन या शारीरिक हिंसा का शिकार होता है, और गरीब घरों के बच्चे तो काम करने की जगहों पर भी भयानक हिंसा झेलते हैं। पुलिस हिरासत में इनके साथ बलात्कार भी होता है। यहां तक कि सुधार गृह में संरक्षकों द्वारा बड़े पैमाने पर इन्हें हिंसा, कुपोषण, क्रूरता और बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में इसमें क्या हैरानी है कि बच्चे हिंसा करना सीखते हैं?
इसके बावजूद महिला एवं बाल विकास मंत्री द्वारा जो आंकड़े बताए गए हैं, वे गलत हैं। उन्होंने कहा है कि 50 फीसदी बलात्कार किशोरों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का आंकड़ा बताता है कि आईपीसी के तहत दर्ज कुल अपराधों के मात्र 1.2 फीसदी मामले में ही किशोर आरोपी हैं। एनसीआरबी का आंकड़ा यह भी बताता है कि बलात्कार के मामलों में किशोरों की संलिप्तता 2012 में जहां 4.7 फीसदी थी, वह 2013 में घटकर 4.1 फीसदी रह गई है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि किशोरों की संलिप्तता वाले इन कथित बलात्कार के मामलों में ज्यादातर झूठे होते हैं, जो सहमति से भागने पर अभिभावकों द्वारा दर्ज कराए जाते हैं।
प्रस्तावित संशोधन में किशोरावस्था की उम्र नहीं घटाई गई है और जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ही तय करेगा कि आरोपी को सुनवाई के लिए वयस्क अदालत में भेजा जाए या नहीं। साथ ही 18 वर्ष से कम उम्र के अपराधियों को उम्रकैद और मृत्युदंड की सजा नहीं दी जाएगी। ऐसे में कुछ किशोर अपराधियों को जेल भेजने का उद्देश्य क्या है, जहां उन्हें गुरु के रूप में वयस्क अपराधी मिलेंगे? जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड पर किशोर अपराधियों को सुनवाई के लिए वयस्क अदालतों में भेजने का अनुचित दबाब भी पड़ेगा। और ऐसे मामलों को वयस्क अदालतों में भेजने का फैसला आरोपी के खिलाफ ही जाएगा।
यदि हम देश में नाबालिगों को अपराध करने से रोकना चाहते हैं, तो हमें उन पर ज्यादा ध्यान देने एवं उनकी देखभाल पर ज्यादा खर्च करना होगा। हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी बच्चों को शिक्षा (यौन शिक्षा भी) मिले। किशोर सुधार गृहों की भी निगरानी करनी चाहिए, जिससे यह तय हो कि नाबालिग अपराधियों को सुधारने के लिए जरूरी देखभाल और प्रयास उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
(लेखिका ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेन एसोसिएशन की सचिव हैं)