रियायत किसे और मुनाफा किसका? – विजय सिंघवी

भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में विकसित देशों के दबाव के आगे नहीं झुकने के अपने निर्णय को जायज ठहराया। उनका तर्क था कि हम खाद्यान्न सबसिडी में ज्यादा कटौती करते हुए देश के लाखों छोटे किसानों की आजीविका को जोखिम में नहीं डाल सकते थे। उनकी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने मोदी के इस विचार का पुरजोर स्वागत किया।

जहां तक विकसित देशों के दबाव में नहीं आने का सवाल है, तो शायद मोदी सरकार का निर्णय ठीक था। लेकिन इसके लिए सरकार ने जिन तर्कों का सहारा लिया, वे सही नहीं कहे जा सकते। हकीकत यह है कि खाद्यान्न के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रक्रिया से सबसिडी का लाभ पाने वाले किसानों में छोटे और हाशिए पर सिमटे किसान शामिल नहीं हैं। इस मुनाफे में उनकी हिस्सेदारी इसलिए नहीं होती, क्योंकि वे इतनी मात्रा में फसल का उत्पादन ही नहीं कर पाते कि बाजार में उसका लाभ उठा सकें। सरकारी एजेंसियों व निजी क्षेत्र द्वारा अधिग्रहित किए जाने वाले खाद्यान्न में 20 फीसद योगदान भी छोटे किसानों का नहीं होता। बाजार में आने वाला लगभग 70 फीसद खाद्यान्न बड़े किसानों का होता है।

देश की कृषि-उत्पादकता बढ़ाने की पहल सबसे पहले इंदिरा गांधी सरकार ने की थी। वे नहीं चाहती थीं कि देशवासियों का पेट भरने के लिए उन्हें विकसित देशों के सामने हाथ फैलाने पड़ें। हरित क्रांति का उनका प्रयोग सफल रहा और भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन गया। इतना ही नहीं, भारत चावल के सबसे बड़े निर्यातक देश के रूप में भी उभरा। पिछले साल ही भारत ने एक करोड़ टन चावल का निर्यात किया है। लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के भंडारगृह आज भी भंडारण की सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं, जिसके चलते हर साल लाखों टन अनाज सड़ जाता है।

देश की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर साल-दर-साल हमारी उत्पादकता बढ़ाने के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली भी प्रारंभ की थी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिले। लेकिन सरकार यह नहीं समझ सकी कि सरकार द्वारा दिए जाने वाले लाभ केवल बड़े और सक्षम किसानों को ही मिल रहे हैं और छोटे किसानों पर तो उलटे उनकी वजह से और बोझ बढ़ा है, क्योंकि इससे न केवल खाद्यान्न बल्कि सभी जरूरी वस्तुओं के दाम बढ़ गए। पिछले चार दशक में किसी भी सरकार ने बड़े किसानों से कर वसूलने और उर्वरक सहित अन्य इनपुट्स पर दी जा रही सबसिडी में कटौती करने का साहस नहीं दिखाया, क्योंकि हर सरकार पर बड़े किसानों की लॉबी का दबदबा रहा है। नरसिंह राव और वाजपेयी सरकार ने उर्वरकों सहित अन्य इनपुट्स पर दी जा रही सबसिडी में खासी कटौती करने का फैसला किया था, लेकिन उन्हें भी अपना निर्णय बदलने को बाध्य होना पड़ा।

दूसरी तरफ लगभग सभी राजनीतिक दलों को उद्योगों की तुलना में किसानों को अधिक रियायती दरों पर या नि:शुल्क बिजली देने पर भी मजबूर होना पड़ा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य और मुफ्त बिजली, इन दोनों सेही छोटे किसानों को कोई लाभ नहीं मिला है। वे दशकों से घोर दरिद्रता में अपना जीवन बिता रहे हैं। कर्जदारों से त्रस्त आकर आत्महत्या करने वाले किसानों की बढ़ती तादाद से भी इसी बात की पुष्टि होती है। अध्ययनों से पता चला है कि किसानों ने जैसे ही खाद्यान्न् के बजाय ‘कैश क्रॉप" की उपज में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी, किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की घटनाओं में भी इजाफा हुआ। न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली तो तथाकथित ‘कैश क्रॉप" पर भी लागू थी, लेकिन यह तो साफ ही है कि किसानों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ है।

मूल्य प्रणाली का लाभ उठाकर बड़े किसानों ने वर्षों की अवधि में खासी संपत्ति तो बना ली, लेकिन उन्होंने इसका जरा-सा भी लाभ उन भूमिहीन मजदूरों तक नहीं पहुंचने दिया, जो उनकी जमीनों पर दिन-रात मेहनत करके उनके लिए फसल उगाते हैं। वर्ष 1971 में न्यूनतम मजदूरी 14 रुपए प्रतिदिन थी, जो वर्ष 2013 तक बढ़कर 175 रुपए ही हो सकी है। इसकी तुलना में वर्ष 1971 में जहां गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 500 रुपए प्रति टन था, वहीं आज यह 18000 रुपए है। चावल की कीमतों में भी खासा उछाल आया है। खाद्य निगम के साथ ही अन्य क्षेत्रों की फर्में हर साल लगभग छह करोड़ टन चावल का अधिग्रहण करती हैं। अत: किसानों को हर साल खाद्यान्नों पर एक लाख करोड़ से अधिक रुपयों का भुगतान किया जा रहा है।

खाद्य सुरक्षा योजना के तहत अब सरकार 21 हजार करोड़ रुपए मूल्य पर छह करोड़ टन खाद्यान्न का वितरण करना चाहती है। समृद्ध किसान और उनके प्रतिनिधि इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि वितरण प्रणाली में मौजूद भ्रष्टाचार और न्यूनतम समर्थन मूल्य की 20 फीसद दर पर इतनी बड़ी मात्रा में खाद्यान्न् का वितरण करने से कृषि-अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होगी और अनिश्चितताओं के अंदेशे में निजी क्षेत्र द्वारा हाथ खींच लेने की स्थिति में बड़े किसानों पर लगभग 2 करोड़ टन अनबिके भंडार का बोझ पड़ जाएगा।

हर सरकार छोटे किसानों की मदद करने का हवाला देकर अपनी मूल्य व अधिग्रहण नीति को जायज ठहराती है, लेकिन यह दलील इसलिए लचर है, क्योंकि छोटे किसानों के पास इतनी मात्रा में उपज होती ही नहीं है कि वे उसे बाजार में ले जाएं। यही कारण है कि अब इस बात की गहन पड़ताल करने का वक्त आ गया है कि सरकारी नीतियों से कौन सबसे ज्यादा लाभान्वित हो रहा है। हर सरकार छोटे किसानों के हितों का दम भरते हुए मूल्य-नीति को बरकरार रखती है। यूपीए सरकार ने तो अपने दस साल के राज में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाकर लगभग दोगुना कर दिया। क्या इसी से हमें नहीं समझ जाना चाहिए कि पिछले तीन वर्षों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा इजाफा क्यों हुआ?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

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