जमीन का हिस्सा कम होने के बाद किसानों ने सीमित जमीन पर खेती करके बेदह कठिनाई और गहरे संकट में अपने परिवारों का पालन-पोषण किया और अभी भी उसी बदहाली में जी रहे हैं। परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने के साथ उनकी गुजर बसर में मुश्किल तो हुई है साथ ही सीमित जमीन का बंटवारा हो जाने से उनकी खेती का दायरा भी सिमट गया है। इस पूरी प्रक्रिया का असर उनके पूरे जीवन पर पड़ा है और अभी भी ये लोग अपनी जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं। किसानों के लिए यह भी परेशान करने वाली है कि उन्हीं के गांव के प्रभावशाली किसानों को मुआवजा और जमीन के बदले जमीन तो मिल गई, लेकिन साधारण और गरीब लोगों को अपना हक हासिल करने के लिए दशकों से आज तक जूझना पड़ रहा है।
मंगलवार की दोपहर नईदुनिया ने धमधा ब्लॉक के ग्राम लिटिया और उसके आसपास के उन गांवों का जायजा लिया जहां 3-4 किलोमीटर के दायरे में ऐसे तीन बांध बने हैं और इस समय लबालब हैं। जिन किसानों की जमीनें बांधों में डूबी हैं, उन्हें यह बांध देखकर थोड़ी निराशा भी होती है कि उनकी जमीनें हाथ से निकल गई और मुआवजा मिला न जमीन के बदले जमीन।
किसान बताते हैं कि 1972 के आसपास जब अकाल की स्थिति बनी थी तब की मध्यप्रदेश सरकार ने गांव को लोगों के लिए सूखा राहत का काम शुरू किया था। सूखा राहत के काम के तहत बांधों का निर्माण कराया गया। करीब 75 साल की उम्र वाले महेतर जो लिटिया गांव में रहते हैं, ने बताया कि उनकी 20 डिसमिल जमीन बांध की जद में आई है। सात सदस्यों वाले परिवार के पास अब मात्र एक एकड़ जमीन गुजर बसर के लिए है।
महेतर ने बताया कि वे इतने बरसों में सैकड़ों बार पटवारी, अमीन से लेकर कई सरकारी अफसरों के पास जा चुके हैं, उन्हें भरोसा तो दिलाया गया कि मुआवजा मिलेगा, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसी गांव के निवासी मानसिंह के पुत्र चंद्रिका अब पिता की जगह खुद मुआवजे कीलड़ाई लड़ रहे हैं। उनके परिवार की 70 डिसमिल जमीन बांध के पानी में है। इसी गांव के रमेसर, श्यामलाल, मोतीलाल, नंदलाल और कई अन्य की भी यही कहानी है। इनका यह भी कहना है कि जिनकी जमीन अभी पूरी तरह डूब में है उन्हें तो मुआवजा नहीं मिला, लेकिन कई ऐसे किसान भी है जिनकी जमीन बांध से दूर है उन्हें बहुत पहले ही मुआवजा मिल चुका है।
दो और बांध लील गए जमीन
लिटिया गांव से कुछ दूर पर बने दो और बांध तुमाखुर्द नं.-1 (अरसी) और तुमाखुर्द नं.-2 (डोडकी) में भी दो बड़े बांध 1972 के आसपास बनाए गए थे। यहां के किसान बताते हैं कि गांव के एक प्रभावशाली किसान ने अपनी डूब की जमीन के बदले दूसरी जगह जमीन हासिल कर ली, लेकिन बाकी को नहीं मिली, ये बाकी बचे किसान अब भी इस बात के लिए अड़े हैं कि उन्हें भी जमीन के बदले जमीन दी जाए। अरसी गांव के बांध पीड़ित बताते हैं कि वहां मुआवजा देने के लिए गलत मूल्यांकन किया गया है। किसी की जमीन का मुआवजा दो फसली सिंचित जमीन के हिसाब से दिया गया, बाकी को असिंचित जमीन के तौर पर मुआवजा मिला।
डुबान क्षेत्र में डूबे खेत- मुआवजा नहीं
इन गांवों में कई ऐसे किसान भी हैं जिनकी जमीन आंशिक डूब में आती है। ऐसी जमीन का अधिग्रहण होता न मुआवजा मिलता है। ऐसे किसानों की जमीन जब बारिश के समय 3-4 माह डूब में रहती है तो उनके नुकसान का आकलन कर क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान है, लेकिन यह भी नहीं हो रहा है। लिटिया गांव के एक युवा भुवनेश्वर साहू ने बताया कि उसकी मां सुमित्रा बाई के नाम की साढ़े तीन एकड़ जमीन आंशिक डूब में आती है, लेकिन उनको मुआवजा नहीं मिलता। यही स्थिति मेघनाथ की भी है। उसके पिता फिरंता राम के नाम की आधा एकड़ जमीन डूब में आती है। बताया गया है कि अरसी बांध(तुमाखुर्द) की उंचाई बढ़ाने से बांध क्षेत्र में डूबत जमीन का दायरा बढ़ा है। यही नहीं बांध के लिए बनाई गई नहर-नाली के लिए इस्तेमाल की गई जमीनों का मुआवजा प्रकरण नहीं बना है।
अफसरों की लापरवाही जिम्मेदार
इन किसानों की न्याय दिलाने के प्रयास में जुटे छत्तीसगढ़ प्रगतिशील किसान संघ के पदाधिकारी राजकुमार गुप्त और योगेश्वर सिंह दिल्लीवार इस पूरी गड़बड़ी के लिए तत्कालीन प्रशासनिक अफसरों और भ्रष्टाचार को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि दशकों से मामला लंबित होने के बाद कार्रवाई नहीं हुई। इस मामले में यदि जल्द न्याय न मिला तो केस न्यायालय में ले जाया जाएगा। योगेश्वर सिंह दिल्लीवार का कहना है कि मुआवजा निर्धारण नई दरों के अनुसार होना चाहिए।
अवॉर्ड पारित होते ही मिलेगा मुआवजा
जल संसाधन विभाग तांदुला डिविजन के कार्यपालन अभियंता पीके अग्रवाल ने नईदुनिया से चर्चा में कहा है कि मुआवजा के प्रकरणों पर काम किया जा रहा है। अवॉर्ड पारित करने के लिए केस जमा किए गए हैं, अवॉर्ड पारित होते ही मुआवजा दे दिया जाएगा। इससे पहले किसान यह मामला लेकर दुर्ग जिलाधीश के पास गए थे, उन्होंने जलसंसाधन विभाग के अधिकारियों से कहाहैकि जल्द ही मामलों का निपटारा करें।
निश्चित अंतराल में हो समीक्षा
नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बंदोपाध्याय का कहना है कि विकास परियोजना के लिए किए जाने वाले जमीन अधिग्रहण की एक निश्चित अंतराल में समीक्षा होनी चाहिए। दुर्ग जिले के किसानों के सामने आज भी 40 साल पहले के अधिग्रहण की परेशानी नहीं होती यदि बांध परियोजन की समीक्षा होती रहती। छत्तीसगढ़ में ही ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें सरकार ने किसानों की जमीन तो ली, लेकिन मुआवजा प्रक्रिया का पूरी तरह पालन नहीं किया। यह व्यवस्था का लकवाकरण है। अधिग्रहण प्रक्रिया में पुनर्वास की ओर ध्यान न देना आम बात हो गई है।