इस कानून में यह संशोधन बहुचर्चित ‘निर्भया गैंगरेप कांड" की पृष्ठभूमि से जुड़ा है। दिसंबर 2012 में 23 वर्षीय फिजियोथैरेपिस्ट छात्रा के साथ की गई उस सामूहिक बर्बरता में एक ऐसा नाबालिग जघन्य अभियुक्त भी शामिल था, जिसकी उम्र 17 साल थी। इस कारण उसे इस जघन्य अपराध से जुड़े होने के बावजूद अन्य आरोपियों की तरह अदालत मौत की सजा नहीं दे पाई। हमारे वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार 18 साल तक की उम्र के किशोरों को नाबालिग माना जाता है। नतीजतन नाबालिग मुजरिम के खिलाफ अलग से मुकदमा चला और उसे कानूनी मजबूरी के चलते तीन साल के लिए सुधार-गृह में भेज दिया गया। लेकिन सरकार को यह समझना होगा कि क्या सिर्फ उम्र घटा देने से बलात्कारों पर अंकुश लग जाएगा? दरअसल समाज के जिस विकृत माहौल के चलते बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं, उसे भी सुधारने की जरूरत है, वरना इस कानून के संशोधन प्रस्ताव भी ढाक के तीन पात बनकर रह जाएंगे।
महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का कहना है कि सभी यौन अपराधियों में से 50 फीसद अपराधों के दोषी 16 साल या इसी उम्र के आसपास के होते हैं और अधिकतर आरोपी किशोर न्याय कानून के प्रावधान के बारे में जानते हैं। लिहाजा उन्हें इसका ज्यादा भय नहीं होता। इसलिए यदि हम उन्हें साजिशन हत्या और दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराधों के लिए वयस्क आरोपियों की तरह सजा देने लग जाएं तो उनमें कानून का डर पैदा होगा। वैसे भी देश में किशोर अपराध के जितने मामले दर्ज होते हैं, उनमें से 64 फीसद में आरोपी 16 से 18 साल की उम्र के किशोर ही होते हैं। हर साल देश में किशोरों के विरुद्ध करीब 34 हजार मामले दर्ज हो रहे हैं, उनमें से 22 हजार मामलों में आरोपी 16 से 18 वर्ष के हैं।
हालांकि दुनियाभर में बालिग और नाबालिगों के लिए आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता अलग-अलग हैं। किंतु अनेक विकसित देशों में अपराध की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए किशोर न्याय कानून वजूद में लाए गए हैं। कोई नाबालिग यदि हत्या और बलात्कर जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त पाया जाता है तो उसके साथ उम्र के आधार पर कोई उदारता नहीं बरती जाती। कई देशों में नाबालिग की उम्र भी 18 साल से नीचे है। मेनका गांधी भले ही यह दावा कर रही हैं कि ज्यादातर आरोपी किशोर न्याय कानून के बारे में समझ रखते हैं, मगर हमें यह समझना होगाकि बाल अपराधियों से विशेष व्यवहार के पीछे सामाजिक दर्शन की लंबी परंपरा है। दुनिया के सभी सामाजिक दर्शन मानते हैं कि बच्चों को अपराध की दहलीज पर पहुंचाने में एक हद तक समाज की भूमिका अंतर्निहित रहती है। आधुनिकता, शहरीकरण, उद्योग, बड़े बांध, राजमार्ग व राष्ट्रीय उद्यानों के लिए किया जाने वाला विस्थापन भी बाल अपराधियों की संख्या बढ़ा रहा है।
हाल ही में कर्नाटक विधानसभा समिति की रिपोर्ट आई है, जिसमें छेड़खानी और दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के लिए मोबाइल फोन को जिम्मेदार माना गया है। इससे निजात पाने के लिए समिति ने स्कूल व कॉलेजों में इस डिवाइस पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। जाहिर है, विषमता आधारित विकास और संचार तकनीक का गलत इस्तेमाल यौन अपराधों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं।
इस संदर्भ में गंभीरता से सोचने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 95 फीसद बाल अपराधी गरीब व वंचित तबकों के होते हैं। लेकिन हम यह नहीं मान सकते कि आर्थिक रूप से संपन्न या उच्च तबकों में ऐसे बाल अपराधी महज पांच फीसद ही होंगे। सच्चाई यह है कि इस वर्ग में भी यौन अपराध बड़ी संख्या में घटित हो रहे हैं। आज का सामाजिक खुलापन और पश्चिमी संस्कृति का बढ़ता अंधानुकरण इस वर्ग की किशोर पीढ़ी को भी दिग्भ्रमित कर रहा है। ये बच्चे छोटी उम्र में ही अश्लील साहित्य पढ़ने और फिल्में देखने लग जाते हैं, क्योंकि इनके पास उच्च गुणवत्ता के मोबाइल फोन सहज सुलभ रहते हैं। इसके चलते वे कई बार सहमति से या जबरन भी कच्ची उम्र में ही शारीरिक संबंध बनाने जैसी भूल भी कर बैठते हैं। ऐसे मामले कई बार इसलिए भी सामने नहीं आ पाते क्योंकि लोकलाज या रसूख के नाम पर इन्हें दबा दिया जाता है।
बहरहाल, सरकार के बाद अब संसद इस कानून में संशोधन प्रस्ताव पारित करने से पहले इसके तमाम पहलुओं पर विचार करे। पीड़ित को न्याय मिले, यह तो सभी चाहते हैं, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि किशोर अपराधियों को सुधरने का मौका देने के बजाय दंडित करने से कहीं वे अपनी आगे की जिंदगी में गंभीर अपराधों की ओर उन्मुख न हो जाएं!
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)