किसे है जीएम फसलों की जरूरत? – देविंदर शर्मा

गिल्स-एरिक सेरालिनी फ्रांस के नोर्मांडी में स्थित काएन यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक हैं। दो साल पहले, वर्ष 2012 में उनके एक शोध पत्र ने वैज्ञानिक जगत में खलबली मचा दी थी। सेरालिनी ने कुछ चूहों को दो वर्ष तक जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) अनाज खिलाया था। नतीजे चौंकाने वाले रहे। चूहों के शरीर पर बहुत बड़े आकार वाली गांठें उभर आईं। साथ ही उनमें यकृत और गुर्दे की बीमारियां भी पाई गईं। यह पहली बार था, जब चूहों पर दो वर्ष यानी उनके पूरे जीवनकाल तक इस तरह का प्रयोग किया गया हो। आमतौर पर चूहों पर इस तरह के प्रयोग तीन माह की अवधि तक किए जाते हैं। यदि एक मनुष्य की औसत आयु 80 वर्ष मानें तो यह उस पर 20 वर्ष तक ही प्रयोग करने जैसा होगा।

जीएम फसलों के पक्षधर वैज्ञानिकों द्वारा सेरालिनी के निष्कर्षों की तीखी आलोचना की गई। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए। यहां तक कह दिया गया कि सेरालिनी ने निष्कर्षों के साथ छेड़खानी की है। इसके बाद जिस पत्रिका में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ था, उसने अपने अंक से इस लेख को निकाल दिया। गौरतलब है कि ऐसा अमेरिका की एक एग्रीकल्चरल बायोटेक्नोलॉजी मल्टीनेशनल कंपनी मोन्सान्टो के एक व्यक्ति द्वारा पत्रिका के शीर्ष संपादकीय विभाग में शामिल होने के बाद हुआ था। बहरहाल, तब तक सेरालिनी का वह अध्ययन एक अन्य पत्रिका एनवायरमेंट साइंस यूरोप में प्रकाशित हो चुका था।

अब जबकि अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि रासायनिक कीटनाशकों के घातक प्रभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं, तो चूहों पर मात्र 90 दिन प्रयोग करने के बाद किसी नतीजे पर पहुंच जाने का क्या औचित्य है? हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि यदि आपको गुर्दे की समस्या है तो हो सकता है कि आपकी दादी के रासायनिक कीटनाशकों के प्रभाव में आने के कारण ऐसा हुआ हो। यदि कीटनाशकों के मामले में यह सच है तो क्या जीएम फसलों के प्रयोगों की अवधि को लेकर भी हमें सचेत नहीं रहना चाहिए? आखिर क्या कारण है कि देशवासियों पर तुरत-फुरत में जीएम फसलें थोपने की कोशिश की जा रही है?

जीएम फसलों के पक्षधरों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि हम इनके फील्ड ट्रायल की ही अनुमति नहीं देंगे तो हमें इनकी विशेषताओं के बारे में कैसे पता चलेगा? लेकिन देशवासियों को यह नहीं बताया जा रहा है कि दुनियाभर में फील्ड ट्रायलों के मार्फत ही जीएम फसलों का दूषित प्रभाव दूरदराज तक फैला है। जीएम फसलों में एक ऐसा जीन होता है, जो हवा और परागकणों के मार्फत भी अपने परिवेश में फैल सकता है। अमेरिका में जीएम फसलों के कारण ही लाखों एकड़ के क्षेत्र में खरपतवार फैल गई है और अब उन्हें समाप्त करने के लिए अधिक शक्तिशाली रसायनों की जरूरत महसूस हो रही है। अमेरिका जिन ‘सुपर-वीड्स" की समस्या से जूझ रहा है, उनके बारे में खबरें हैं कि वे सभी प्रकार के रसायनों के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं और अंतत: उन्हें हाथों से उखाड़कर फेंकना पड़ता है।

क्या भारत को भी जीएमबीजों का अपने खेतों में परीक्षण करने से पहले चूहों आदि पर उनके दीर्घकालिक प्रयोग नहीं कर लेने चाहिए? निश्चित ही, यहां वैज्ञानिक परीक्षणों का विरोध नहीं किया जा रहा है, लेकिन हमें इस बात के प्रति सचेत रहना चाहिए कि जीएम के जीन बड़ी तेजी से प्राकृतिक परिवेश में शामिल होते हैं और उन्हें खाद्य श्रृंखला का हिस्सा बनते भी देर नहीं लगती। आखिर पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पहले ही उस जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) को इस बात के लिए निर्देशित क्यों नहीं कर दिया कि जीएम फसलों को अनुमति देने से पहले वह मनुष्यों पर पड़ने वाले उसके प्रभावों के बाबत दीर्घकालिक परीक्षण कर ले?

लेकिन जैसे ही इस तरह की बातें कही जाती हैं, जीएम फसलों के पक्षधर फौरन उठ खड़े होते हैं और इस तरह की दलीलें देने लगते हैं कि अमेरिकी तो लगभग 20 सालों से जीएम भोजन खा रहे हैं, उन्हें तो अभी तक कुछ नहीं हुआ। लेकिन हमें यह नहीं बताया जाता है कि जब जीएम उद्योग मानवों पर क्लिनिकल परीक्षण की अनुमति ही नहीं देते हैं तो हमें मनुष्यों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जीएम भोजन के दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में कैसे पता चल सकता है? अभी तक इस प्रकार का केवल एक क्लिनिकल परीक्षण हुआ है, जिसमें जीएम ने चूहों के शरीर में विकृतियां उत्पन्न् कर दी थीं। उसके बाद से जीएम उद्योग ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि और कोई क्लिनिकल ट्रायल न हों।

अमेरिका में वर्ष 1994 में पहली जीएम फसल (जीएम टमाटर) का उत्पादन किया गया था और तभी से वहां बीमारियों में खासी बढ़ोतरी हुई हैं। एलर्जी में 400 फीसद, अस्थमा में 300 फीसद और ऑटिज्म में तो 1500 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई है। मैं अकसर यह कहता रहा हूं कि सभी विकसित राष्ट्रों में अमेरिका सबसे बीमार है।

अब जरा जीएम उद्योग के बड़े-बड़े दावों को भी सुन लें। उनका कहना है कि वास्तव में जीएम फसलों का प्रयोजन कीटनाशकों के इस्तेमाल को कम से कम करते हुए पर्यावरण को और स्वच्छ बनाना है। वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता चार्ल्स बेनब्रुक ने दिखाया है कि वर्ष 1996 से 2011 के दरमियान अमेरिकी किसानों ने 400 मिलियन पाउंड अतिरिक्त कीटनाशकों का उपयोग किया है। वर्ष 2012 में जीएम किसानों द्वारा अन्य किसानों की तुलना में औसतन 20 प्रतिशत अधिक कीटनाशकों का उपयोग किया गया।

ब्राजील और अर्जेंटीना जीएम फसलों के दो अन्य बड़े उत्पादक हैं। अर्जेंटीना में बीते दो दशकों में रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग 34 मिलियन लीटर से बढ़कर 317 मिलियन लीटर यानी लगभग दस गुना हो गया है। अर्जेंटीनी किसान अपने पड़ोसी मुल्कों के किसानों की तुलना में प्रति हेक्टेयर औसतन दोगुनी मात्रा में कीटनाशकों का उपयोग कर रहे हैं। ब्राजील में पिछले एक दशक में कीटनाशकों का उपयोग बढ़कर 190 प्रतिशत हो गया है। चीन में बीटी कॉटन के पदार्पण के सात वर्षों बाद पाया गया कि चीनी किसानों को 20 प्रतिशत अधिक कीटनाशकों का उपयोग करना पड़ रहा है। तो सवाल उठता है कि आखिर हमें जीएम फसलों की जरूरत ही क्यों है, खासतौर पर तब, जबकि वेमौजूदाकिस्मों से अधिक उत्पादन भी नहीं कर पाती हैं? अमेरिका के ही कृषि विभाग के मुताबिक जीएम सोया और जीएम कॉर्न की उपज गैर-जीएम फसलों की तुलना में कम है।

(लेखक खाद्य और कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं। ये उनके निजी विचार हैं

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