गांवों के विकास में उद्योगों की साझेदारी -डॉ. अनिल प्रकाश जोशी

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब यूरोप की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई, उस समय उद्योगों को मूलमंत्र मानकर विकास की रूपरेखा तैयार की गई। इसी समय दो बड़े परिवर्तन भी हुए। पहला, विकास की परिभाषा इस तरह गढ़ दी गई, जिसका सीधा-सीधा मतलब था कि उद्योग और उससे जुड़े तमाम आयामों को ही विकास मान लिया जाए। दूसरा, इसके बाद ही भोगवादी सभ्यता का चलन बढ़ा।

अपने देश ने भी स्वतंत्रता के बाद इसे ही प्रगति का बड़ा रास्ता माना और तथाकथित विकास की बेतरतीब दाैड का हिस्सा बन गया। इसके बड़े परिणाम जो भी रहे हों, पर गांव अनदेखी का शिकार अवश्य हो गए। कुल मिलाकर शहरीकरण ही विकास का मानक बन गया। जहां-जहां अवसर मिले, वहां-वहां उद्योगों ने तेजी से पकड़ बनानी शुरू कर दी। देश के उद्योग आज दुनिया में भी काफी आगे हैं। देर-सबेर सरकार को गांवों की चिंता हुई और साथ में उद्योगपतियों ने भी गांवों पर ध्यान देना शुरू किया। बात साफ थी। जो कच्चे माल गांवों में ही हैं, उनके स्थायी दोहन के लिए गांवों की भागीदारी जरूरी थी। यह चिंता हमारे ही देश की नहीं, बल्कि यह सारी दुनिया का विषय है। विकसित देशों में उद्योगपतियों ने इस पहलू पर गौर करते हुए 20वीं सदी में ही अपने समाज व गांव के प्रति दायित्व महसूस करते हुए अपने लाभ के एक अंश को सामाजिक कार्यों में लगाने के लिए कदम उठाए। हमारे देश में भी कुछ बड़े उद्योग घरानों ने इसे अपना नैतिक दायित्व समझते हुए धार्मिक स्थलों, संस्थानों, शिक्षा व स्वास्थ्य में लाभांश को सेवा में लगाना शुरू कर दिया। यह सब देखते हुए सरकार ने भी कुछ बड़े कदम उठाते हुए उद्योगपतियों के लाभांश के एक हिस्से को समाजसेवा में लगाने के लिए प्रेरित किया। वैसे कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व जैसे शब्द का जिक्र 1952 के आसपास शुरू हुआ, जब उद्योगपतियों ने सेवाभाव के रूप में वंचित लोगों के लिए भी कुछ करने की ठानी। अपने देश में इसकी गंभीरता को देखते हुए कॉर्पोरेट संदर्भित मंत्रालय के अंर्तगत ऐसा निर्णय लिया गया, ताकि इससे जुड़े मुद्दों पर बीच-बीच में बात हो सके। इसे प्रभावी बनाने के लिए 2000 में एक एक्ट भी लागू कर दिया गया।

आज देश के बड़े उद्योग घरानों ने विधिवत अपने सामाजिक दायित्वों को निभाने के लिए अपने लाभ के एक हिस्से को जनसेवा में लगा रखा है। ज्यादातर लोगों ने अपने ही संगठन बनाकर उसके तहत सामाजिक कार्य से अपने आपको जोड़ा है। इनके कार्यों के अंतर्गत शिक्षा, ग्राम्य विकास, पर्यावरण, स्वास्थ्य, पानी आदि कार्य आते हैं। ये अपने कार्यों की प्राथमिकता स्वयं तय करते हैं, जो स्थान-काल के अनुसार बदलते रहते हैं। इनकी समीक्षा भी स्वयं करते हैं। ज्यादातर कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्वों में वे ही कार्य होते हैं, जो उद्योगों के हितों से जुड़े होते हैं या फिर उद्योग केंद्रित आसपास के गांवों को प्राथमिकता दी जाती है। 2000 में जबसे इस संदर्भ में एक्ट पास हुआ, तब से कभी-कभार इनकी प्रगति पर बैठकें जरूर होती हैं, पर इनकी राष्ट्रीय समीक्षा कभी नहीं हुई। मसलन इनकी क्या दिशा व दशा है और क्या नई संभावनाएं हैं?आज कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व का राष्ट्रीय विकास में क्या योगदान है, यह कहीं स्पष्ट नहीं होता। असल में वर्तमान परिस्थितियों में एक तरफ जहां उद्योग जगत के सामाजिक दायित्व की राष्ट्रीय समीक्षा की आवश्यकता है, वहीं इसे देश की प्राथमिकता से जोड़ने की भी उतनी ही बड़ी कवायद होनी चाहिए।

इस समय देश की सबसे बड़ी पहल गांवों के पुनरुद्धार की है। देश में एक बड़ी संख्या में गांव दिन-प्रतिदिन हर रूप में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। स्वतंत्रता से पहले जो कुछ भी गांवों में था, वह भी खो चुका है : न सड़क, न बिजली और न ही शौचालय। आवश्यक सुविधाओं से वंचित ये गांव आज भी वैसे ही हैं। गांवों ने हर रूप में मार खाई है। इन्हें किसी भी रूप में कोई सुख तो नहीं मिला, पर साथ में वे अपने उत्पादों के लाभों से भी वंचित हैं। इन विषमताओं ने गांवों से जहां पलायन को बढ़ाया है, वहीं कुछ जगह लोगों का आक्रोश भी सामने आया है। जैसी हमारी नीतियां हैं, उनके मद्देनजर यह आक्रोश बढ़ता जा रहा है।

सरकार की देश के विकास को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर लाने की चाहे जो प्राथमिकताएं हों, उसे गांवों के विकास के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए। इसी कड़ी में उद्योग जगत के सामाजिक दायित्वों, कार्यक्रमों को नई दिशा देनी चाहिए। कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि टुकड़ों-टुकड़ों में अलग-अलग मुद्दों पर कार्य न होकर समग्र रूप से विकास हो। औद्योगिक घराने देश के पिछड़े गांवों को गोद लें। इसका पैमाना सरकार तय करे कि कौन-सा उद्योग हर वर्ष या हर दूसरे-तीसरे वर्ष कितने गांवों को गोद ले सकता है। इसका सीधा मतलब होगा कि गांवों की हर छोटी-बड़ी आवश्यकता का दयित्व उन उद्योगों का होगा। अब चाहे छत का सवाल हो या शौचालय का या फिर अन्य आवश्यकताओं का, ये सभी संबंधित उद्योग की जिम्मेदारी होनी चाहिए। उद्योग गांवों के उत्पादों और संसाधनों के लिए बेहतर बाजार के रास्ते भी तैयार करेंगे।

इस तरह से अगले कुछ दशकों में हजारों गांव बेहतर जीवन जी सकेंगे। आने वाले 25 वर्षों में भारत के गांवों की तस्वीर बदलती दिखाई देगी। सरकार के दायित्वों में उद्योग घरानों की यह भागीदारी बड़ी महत्वपूर्ण होगी। इस मुद्दे पर गंभीर बातचीत की आवश्यकता है। बड़े उद्योग घराने व गांवों के बीच एक शीतयुद्ध-सी स्थिति हमेशा बनी रहती है। ऐसे कदमों से दोनों एक-दूसरे के पूरक भी होंगे और सौहार्दपूर्ण वातावरण भी तैयार होगा। अभी कॉर्पोरेट के सामाजिक दायित्व खोखले-से दिखाई देते हैं, जिनका इतिहास तो है, पर भविष्य का पता नहीं।

(लेखक जाने-माने पर्यावरणविद हैं। ये उनके निजी विचार हैं

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