दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साला (वर्षीय) स्नातक कार्यक्रम (एफवाययूपी) को लेकर चले हालिया विवाद से मीर का एक शेर मुङो याद आया- ‘नाहक हम मजबूरों पर तोहमत है मुख्तारी की/ चाहते हैं सो आप करे हैं, हमको अबस बदनाम किया.’ पिछले कई सालों से उच्चशिक्षा के खेल देखते-देखते मैं समझ गया हूं कि बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे छोटे-छोटे लोगों पर मुख्तारी की तोहमत बेकार ही लगती है.
ये बेचारे तो प्यादे हैं. जिम्मेवारी तो उनकी है जो सत्ताधीश हैं, जो चाहते हैं सो आप करे हैं. असल सवाल दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साला कोर्स का नहीं है. चार साला स्नातक कार्यक्र म के पक्ष में मजबूत तर्क दिये जा सकते हैं और विपक्ष में भी. नयी एनडीए सरकार ने फैसले को पलटने के लिए उन्हीं तिकड़मों का इस्तेमाल किया, जिसे पिछली यूपीए सरकार ने एफवाययूपी को आगे बढ़ाने में आजमाया था.
दरअसल सरकारें बदलती हैं, लेकिन सत्ता के रंग-ढंग नहीं बदलते. असल सवाल यह है उच्च शिक्षा के अहम फैसले हम करते कैसे हैं. एफवाययूपी को जिस तरह पहले लागू और बाद में हटाया गया उससे सत्ता के मनमौजी मिजाज का पता चलता है. पाठ्यक्र म में कोई आमूल-चूल बदलाव करना हो तो सोच-विचार करने और फैसला लेने में विश्वविद्यालय अमूमन दो या तीन साल का समय लगाते हैं.
लेकिन इस बार वाइस चांसलर चाहते थे कि सबकुछ छह महीने या फिर इससे भी कम समय में पूरा कर लिया जाय. विद्वत-समुदाय का हर व्यक्ति हक्का-बक्का था. बहरहाल, वीसी मामले को आगे बढ़ाने को लेकर बजिद थे. सुनते थे कि वीसी तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के चहेते हैं, कि चार वर्षीय स्नातक कार्यक्र म को मंत्री जी का आशीर्वाद हासिल था.
बस एक इशारा मिला और सारी चीजें वीसी के मनमाफिक होती गयीं. विश्वविद्यालय के भीतर विचार-विमर्श की सारी औपचारिकताएं तूफानी रफ्तार से पूरी हुईं. विरोध में उठी आवाजों को एक किनारे कर दिया गया. मंत्रालय के बाबूलोग वीसी को हरसंभव मदद देने को उत्सुक थे. दिल्ली विश्वविद्यालय के विजिटर यानी देश के राष्ट्रपति ने मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया. मजे की बात यह है कि मंत्री से लेकर संतरी तक हर किसी ने कहा कि वह विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का सम्मान कर रहा है. तब यूजीसी एक नियामक की तरह नहीं बल्किमंत्रीजी के एक एजेंट की तरह काम कर रहा था.
उस वक्त मैं यूजीसी का सदस्य था, सो कई मैंने इस वाकये को नजदीकी से देखा था. पहले तो आयोग के एक अन्य सदस्य प्रोफेसर एम एम अंसारी और मेरे लिखित अनुरोध के बावजूद आयोग की बैठक में एफवाययूपी के मसले को चर्चा के लिएशामिल नहीं किया गया. लेकिन दस दिन बाद, जब इस विवाद की आंच मंत्री तक पहुंची, तो इसी यूजीसी ने एफवाययूपी के मामले में पर्यवेक्षण के लिए एक समिति नियुक्त कर दी. जाहिर है, किसी ने इसके लिए आंखों ही आंखों में इशारा किया होगा.
फिर भी हममें से कुछ ने आयोग को एफवाययूपी पर चर्चा के लिए मजबूर किया. पिछले साल जुलाई के महीने में हुई बैठक में दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर बताया गया कि एफवाययूपी को लागू करने में क्या समस्याएं हैं.
इनमें से एक यह था कि एफवाययूपी के अंतर्गत एक ऐसी डिग्री (बैकालॉरेट) देने की बात शामिल है, जिसे एफवाययूपी की घोषणा के वक्त यूजीसी की मान्यता हासिल नहीं है. दूसरे, दिल्ली विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्र म की शुरु आत करने के छह महीने पहले इसके बारे में यूजीसी को सूचित नहीं किया, जबकि ऐसा करना वैधानिक रूप से जरूरी था. तीसरे, नीतिगत आधार पर देखें तो एफवाययूपी की घोषणा दरअसल राष्ट्रीय शिक्षा नीति से एक विचलन है और इस कारण इस पर पर्याप्त सोच-विचार की दरकार है. चौथे, एफवाययूपी की वजह से अतिरिक्त फंड की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए यूजीसी से पूर्व-अनुमति जरूरी है.
दिलचस्प बात यह है कि एफवाययूपी को हटाने के लिए यूजीसी ने बीते माह तकरीबन यही तर्क पेश किये, जबकि पिछले साल यूजीसी के अध्यक्ष और संबद्ध मंत्रालय के बाबूलोगों ने उपर्युक्त सारी आपत्तियों को नकार दिया था.
अब सरकार की मनमर्जी कुछ और है. चूंकि मुंडी हिलाने वाले बदल गये हैं, इसलिए मंत्रालय और यूजीसी के मिजाज भी बदल गये हैं. मजे की बात यह है कि यूजीसी के अध्यक्ष और सचिव (उच्च शिक्षा) जैसे महत्व के पदों पर अब भी वही लोग बैठे हैं, लेकिन अब अचानक उन्हें एफवाययूपी के विरुद्ध वे तमाम तर्क जायज लगते हैं, जिन्हें पिछले साल उन्होंने खारिज कर दिया था. एफवाययूपी की विदाई में वही मनमानापन है, जो उसकी अगवानी के वक्त था.
उच्च शिक्षा पर हुए बड़े फैसलों को दो सालों तक दर्शक-दीर्घा में बैठ कर देखने के बाद मुङो यह सीख मिली है कि शासन नियम और कायदों का नहीं, बल्कितख्त पर बैठे सत्ताधीशों की मनमानी का मामला है. यह बात जितनी यूजीसी सरीखी स्वायत्त संस्थाओं पर फिट बैठती है, उतनी ही किसी सरकारी विभाग के लिए. यह बात जितनी यूपीए सरकार के लिए सच थी, उतनी ही आज के एनडीए सरकार के लिए.
आगे के लिए यह कहानी याद रखी जानी चाहिए, क्योंकि बीजेपी एक के बाद एक संस्थाओं पर अपनी पकड़ बढ़ाती जायेगी; आज यूजीसी तो कल भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, फिर इसी क्रम में भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद् और एनसीइआरटी की बारी आयेगी. सैकड़ों धर्मनिरपेक्ष विद्वत्जन चिल्लायेंगे कि यह सब गलत हो रहा है.
वे विरोध-प्रदर्शन करेंगे कि बीजेपी/आरएसएस के खांचे में फिट करने के लिए संस्थानों की स्वायत्तता के साथ हो रहा खिलवाड़ बंद हो. यह विरोध-प्रदर्शन उचित और जरूरी है लेकिन उन्हें इस सिलसिले में कुछ और सवालों पर भी सोचना होगा. सवाल यह कि क्या संस्थानों की स्वायत्तता की सुरक्षा की हमारी कोई विरासत है? क्या विद्वत समुदाय ने अपनी स्वायत्तता की सुरक्षा का साहसदिखायाहै? अकादमिक स्वायत्तता के हासिल होने पर उसके इस्तेमाल को लेकर हमारा रिकार्ड क्या रहा है? सवाल यह है कि सत्ता के मनमाने बरताव से मुक्त भविष्य को लेकर हम सोचते क्या हैं.
(लेखक आम आदमी पार्टी के राजनीतिक मामलों की शीर्ष समिति के सदस्य हैं और फिलहाल विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) से छुट्टी पर हैं)