मानववंशविज्ञानियों के मुताबिक, जारवा जनजाति अफ्रीका महाद्वीप से आए आदिमानव के वंशज हैं, जो बहुत सरल जिंदगी जीते हैं। वर्ष 1998 से वे जंगल के बाहर निकलने लगे हैं, और बाहरी संस्कृति से संपर्क में आने के बाद दुखद रूप से कई अपरिचित रोगों का शिकार भी बने। आज उनकी संख्या कुछ सौ तक रह गई है। स्वाभाविक है कि अगर उनके संरक्षण के ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो अन्य जनजातियों की तरह इसके भी खत्म हो जाने का खतरा है। लेकिन जारवा इलाकों में आयोजित मानव सफारियों को देखते हुए लगता है, आदिवासियों को नुमाइश की चीज के तौर पर देखने का ‘फैशन’ बढ़ने लगा है।
हर इंसाफपसंद व्यक्ति यही कहेगा कि नुमाइश की वस्तु बनाने के इस सिलसिले की जितनी निंदा की जाए, कम है। भारत में आबादी का लगभग 8.2 हिस्सा आदिवासियों का है, जो संविधान की धारा 342 के अंतर्गत अनुसूचित हैं। दुखद है कि अपने देश में एक तरफ आदिवासियों के क्षेत्रों में ‘मानवीय सफारी’ को बढ़ावा दिया जाता है, तो दूसरी तरफ उनकी वास्तविक जीवन की अत्यधिक दुर्दशा को लेकर बेरुखी दिखाई जाती है।
आखिर आदिवासी बहुल इलाकों में देशी-विदेशी कंपनियों को जिस किस्म की छूट मिली हुई है, खनिज पदार्थों के दोहन के नाम पर जिस बड़े पैमाने पर आदिवासी समुदायों को विस्थापित किया जा रहा है, वह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। हालांकि आदिवासियों की जीवनशैली को बेहद सभ्य अंदाज में भी परोसा जा सकता है। भोपाल के चर्चित आदिम जाति संग्रहालय में ऐसे ही कई आदिवासी समुदायों के लोग तैनात किए गए हैं, जो झोपड़ों, कृषि औजारों आदि के जरिये प्रदर्शित होती आदिवासी संस्कृति को अधिक ‘वास्तविक’ चेहरा प्रदान करते दिखते हैं।
बहरहाल, अभी यह नहीं कहा जा सकता कि जारवा आदिवासियों के इलाके से गुजर रहे ग्रैंड ट्रंक रोड को चौड़ा करने की प्रक्रिया रुक जाएगी या नहीं, मगर इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुए कि जारवा पर्यटन टूर ऑपरेटर्स, पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन जैसी तिकड़ी के बीच फायदे का सौदा है, इसकी संभावना कम दिखती है कि रोड का विस्तार रुक जाएगा। क्या सर्वोच्च न्यायालय खुद ही इस मामले का संज्ञान लेकर जारवा समुदाय के हितों की रक्षा करेगा?