गंगा योजना के विरोधाभास- अनिल प्रकाश

जनसत्ता 19 जुलाई, 2014 : केंद्र की नई सरकार के तीन-तीन मंत्रालय गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर सक्रिय हुए हैं।

एक बार पहले भी, राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व-काल में, गंगा सफाई योजना पर बड़े शोर-शराबे के साथ काम शुरू हुआ था। गंगा ऐक्शन प्लान बना। मनमोहन सिंह सरकार ने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया। मानो पहले यह राष्ट्रीय नदी न रही हो। अब तक लगभग बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा का पानी जगह-जगह पर प्रदूषित और जहरीला बना हुआ है। गंगा का सवाल ऊपर से जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई में विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल रखने के लिए देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास और पर्यावरण संबंधी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। यह आसान नहीं होगा।


दरअसल, ‘गंगा को साफ रखने’ या ‘क्लीन गंगा’ की अवधारणा ही सही नहीं है। ठीक अवधारणा यह होगी कि ‘गंगा को गंदा मत करो’। थोड़ी-बहुत सफाई तो गंगा खुद करती है। उसके अंदर स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता है। जहां गंगा का पानी साफ हो वहां से जल लेकर अगर किसी बोतल में रखें तो वह सालों-साल सड़ता नहीं है। वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को इस पानी में डाल कर देखा तो पाया कि चार घंटे बाद हैजे के जीवाणु नष्ट हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा।

अगर कोई यह समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्ला करने से या भैसों के नहाने या गोबर करने से गंगा या अन्य कोई नदी प्रदूषित होती है तो यह ठीक उसी प्रकार हंसने की बात होगी जैसे कोई शहरी आदमी जौ के पौधे को गेहूं का पौधा समझ बैठे या बाजरे के पौधे को मक्का या गन्ने का पौधा समझ बैठे। गंगा के संबंध में मोदी सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के अफसर और मंत्रिगण जो घोषणाएं कर रहे हैं, उससे तो ऐसा ही लग रहा है।

कुछ साल पहले आगरा में यमुना नदी में नहा रही लगभग पैंतीस भैंसों को पुलिस वाले पकड़ कर थाने ले आए थे और भैंस वालों ने कई दिन बाद बड़ी मुश्किल से भैंसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्री-मालिक या शहरी मल-जल बहाने वाले नगर निगम अधिकारी पुलिस के निशाने पर कभी नहीं रहे।

गंगा और अन्य नदियों के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोक-टोक के गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि बताते हैं कि गंगा के प्रदूषण के लिए कारखानों से निकले गंदे पानी और विषाक्त रसायनों समेत औद्योगिक कचरा सिर्फ आठ प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आंकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है।

दूसरी बात यह कि जब कल-कारखानों या ताप बिजलीघरों का गर्म पानी और जहरीला रसायन या काला या रंगीन कचरा नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी की स्वयं की शुद्धीकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है। नदी में बहुत-सी सूक्ष्म वनस्पतियांहोती हैं, जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाती हैं, गंदगी को सोख कर आॅक्सीजन मुक्त करती हैं।

इसी प्रकार बहुतेरे जीव-जंतु भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में और अन्य नदियों में भी जगह-जगह ‘डेड जोन’ बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर तो कहीं दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव-जंतु या वनस्पति जीवित नहीं बचता।

उद्योगों, बिजलीघरों के गर्म पानी और जहरीले कचरे को नदी में बहाने पर क्या सख्ती से रोक लगेगी? क्या प्रदूषण के जिम्मेवार उद्योगों के मालिकों, बिजलीघरों के बड़े अधिकारियों को जेल भेजने के लिए सख्त कानून बनेगा और उसे मुस्तैदी से लागू किया जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो गंगा निर्मल कैसे रहेगी?

गंगा के और अन्य नदियों के प्रदूषण का एक और बड़ा कारण है खेती में रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग। ये रसायन बरसात के समय बह कर नदी में पहुंच जाते हैं और जीव-जंतुओं और वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थितिकी को बिगाड़ देते हैं। इसलिए नदियों को प्रदूषण-मुक्त रखने के लिए इन रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सबसिडी को बंद करके पूरी राशि जैविक खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों को देनी पड़ेगी। और अंतत: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर पूर्ण रोक लगानी पड़ेगी।

जैविक खेती में उत्पादकता कम नहीं होती, बल्कि अनाज, सब्जी और फल रसायन-मुक्त और स्वास्थ्यवर्द्धक होते हैं। इसमें सिंचाई के लिए पानी की खपत भी बहुत घट जाती है और खेती की लागत घटने से मुनाफा भी बढ़ता है। अगर इस पर कड़ा फैसला लिया गया तभी नदियों को साफ रखा जा सकेगा।

शहरों के सीवर और नालों से बहने वाले गंदे प्रवाह को शोधन करके साफ पानी नदी में गिराने की बहुत बातें हो चुकी हैं। केवल गंगा किनारे के प्रथम श्रेणी के छत्तीस शहरों में प्रतिदिन 2,601.3 एमएलडी गंदा पानी निकलता है, जिसका मात्र छियालीस प्रतिशत ही साफ करके नदी में गिराया जाता है।

द्वितीय श्रेणी के चौदह शहरों से प्रतिदिन 122 एमएलडी गंदा पानी निकलता है, जिसका मात्र तेरह प्रतिशत साफ करके गिराया जाता है। गंगा किनारे के कस्बों और छोटे शहरों के प्रदूषण की तो सरकार चर्चा भी नहीं करती। शहरी मलजल और कचरे से देश के कुछ शहरों में खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लाया जाता है। ऐसा प्रयोग गंगा और अन्य नदियों के सभी शहरों-कस्बों में किया जा सकता है। अब तक यह मामला टलता रहा है। इसमें भी मुस्तैदी की जरूरत है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा नदी गंगा में मिलती है। वरुणा शहर की सारी गंदगी गंगा में डालती है। क्या प्रधानमंत्री का ध्यान इस पर गया है?

गंगा या अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ों-करोड़ लोगों की ओर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन इनसे जुड़ा है। गंगा पर विचार के साथ-साथ इसमें मिलने वाली सहायक नदियों के बारे में भी विचार करनाजरूरीहै। आठ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंगा में मिलता है। इन नदियों में होने वाले प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा पर शुरू में ही टिहरी में और अन्य स्थानों पर बांध और बैराज बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आई है।

गंगा के प्रदूषण का यह भी बहुत बड़ा कारण है। बांधों और बैराजों के कारण नदी की स्वाभाविक उड़ाही (डी-सिल्टिंग) की प्रक्रिया रुकी है। गाद का जमाव बढ़ने से नदी की गहराई घटती गई है और बाढ़ और कटाव का प्रकोप भयावह होता गया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा में आने वाले पानी का लगभग आधा नेपाल के हिमालय क्षेत्र की नदियों से आता है। हिमालय में हर साल लगभग एक हजार भूकंप के झटके रिकॉर्ड किए जाते हैं। इन झटकों के कारण हिमालय में भूस्खलन होता रहता है।

बरसात में यह मिट्टी बह कर नदियों के माध्यम से खेतों, मैदानों और गंगा में आती है। हर साल खरबों टन मिट्टी आती है। इसी मिट्टी से गंगा के मैदानों का निर्माण हुआ है। यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी।

वर्ष 1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्का बैराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बैराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण डेढ़ सौ से दो सौ फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्का बैराज बना, गाद की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुर्इं। जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह-फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक, यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है।

फरक्का बैराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गई। फिश लैडर बालू-मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियां समुद्र के खारे पानी में होती हैं, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेश के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई और गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में अस्सी प्रतिशत मछलियां समाप्त हो गर्इं। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चला कर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए।

इसलिए जब गडकरी साहब ने गंगा में हर सौ किलोमीटर की दूरी पर बैराज बनाने की बात कही, तब से गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक है, लेकिन बैराजों की शृंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना बुद्धिमानी नहीं है। इस पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। नहीं तो सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा और लेने के देने पड़ जाएंगे।

आज से बत्तीस साल पहले, 1982 में कहलगांव (जिला भागलपुर)से गंगा मुक्तिआंदोलन की शुरुआत हुई थी। जन-प्रतिरोध के कारण 1990 आते-आते गंगा में चल रही जमींदारी समाप्त हो गई और पूरे बिहार के पांच सौ किलोमीटर गंगा क्षेत्र और बिहार की सभी नदियों में मछुआरों के लिए मछली पकड़ना कर-मुक्त कर दिया गया था। गंगा मुक्ति आंदोलन ने ऊपर वर्णित सवालों को लगातार उठाया। आज भी वह आग बुझी नहीं है। गंगा के नाम पर गलत नीतियां अपनाई गर्इं तो बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में वह फिर से लपट बन सकती है।

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