युद्ध में धंसे इराक से किसी प्रकार दो-एक सौ कामगारों को मुक्त कराके स्वदेश लाया जा सका है। उनके जीवन और मृत्यु के बीच झूलते रहे दिनों के अनुभव व्यथित करते हैं। वे 40 लाख से अधिक उन प्रवासी भारतीयों की ओर भी ध्यान आकृष्ट कराते हैं, जो मध्यपूर्व के देशों में काम कर रहे हैं। उनका वर्तमान आजीविका के जुगाड़ में खप रहा है। भविष्य असुरक्षा भरे अनिश्चय की गिरफ्त में है। अतीत की स्मृतियां भी सुखद नहीं हैं। फिर भी अपनी और अपने परिवारों की जरूरतें उन्हें वहां ठेलती रही हैं। पैंतीस-चालीस वर्षों से पंजाब से केरल तक के लाखों प्रशिक्षित-अप्रशिक्षित भारतीय वहां खटते आ रहे हैं।
मध्यपूर्व के देशों में भारतीयों ने चमचमाती सड़कों, विलासितापूर्ण आवासों, उत्तम अस्पतालों से लेकर विश्व के सबसे ऊंचे परिसर बुर्ज खलीफा तक का निर्माण किया। परंतु अपना और अपने परिवारों का भविष्य न संवार सके। दो-ढाई दशक तक उन प्रवासी कर्मचारियों के जीवन का सकारात्मक पहलू केवल यह रहा कि वे भारत स्थित अपने परिवारों के लिए विदेशी मुद्रा भेजते रहे। सन् 2009 के आंकड़ों के अनुसार मध्यपूर्व के इन प्रवासियों ने भारत में 20 अरब डॉलर की राशि भेजी। उन देशों को जितने समय तक इन भारतीयों की जरूरत होती है, उतने वक्त तक वे उन्हें रखते हैं। परंतु जिस दिन उनकी दरकार खत्म हो जाती है, उनका रिश्ता भी टूट जाता है। वे उनके लिए वैकल्पिक आजीविका देने में सहायक होना तो दूर, उनके स्वदेश लौटने का किराया तक नहीं देते। कई बार तो उनका बकाया वेतन भी नहीं दिया जाता।
सबसे बुरी स्थिति उन कामगारों की है जो मध्यपूर्व के परिवारों में घरेलू काम के लिए नियुक्त किए जाते हैं। उनकी नियुक्ति की कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती। सारी मर्जी नियोक्ताओं की चलती है। उन देशों में मानवाधिकारों की बात तक नहीं होती। ज्यादातर नियुक्तियां एजेंसियों के माध्यम से होती हैं, जिनमें से अधिकतर फर्जी और फरेबी होती हैं। कई बार उन्हें जाली दस्तावेजों के माध्यम से मध्यपूर्व के देशों में भेजा जाता है। ऐसे अनेक दृष्टांत भी सामने आए, जिनमें वैध पासपोर्ट के बिना उन देशों में ले जाए गए या अपनी तिकड़म से वहां पहुंचने वाले प्रवासियों को कानूनी गिरफ्त में फंसने के बाद यंत्रणाएं भुगतनी पड़ी हैं। गिरफ्तार करके कठोर कानूनों के तहत उन्हें सजा भी दी जाती है। फिर उन्हें उन देशों में लुभावना रोजगार मिलने के सपने दिखाकर भारत में सक्रिय कुछ एजेंट उनसे भारी-भरकम राशि वसूलते हैं। वे अपनी संपत्ति गिरवी रखकर या अन्य माध्यमों से कर्ज लेकर उन देशों में पहुंचते हैं। लेकिन सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते कि परिजनों को नियमित पैसा भेजकर ऋणमुक्त हो जाएं।
छोटे-छोटे निजी उद्यमों और परिवारों में नियुक्त भारतीयों की स्थिति की जानकारी रखने वाला कोई मानवाधिकार संगठन मध्यपूर्व के देशों में सक्रिय नहीं है। उन देशों में सरकारी योजनाओं में बड़ी संख्या में कार्यरत प्रवासी कर्मियों की कुछ खोज-खबर एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं कई बार जुटाने का प्रयास अवश्य करती हैं। एक उदाहरण खाड़ी के कतर अमीरात का है। वहां 2022 के फुटबाल वर्ल्ड कप के आयोजन की तैयारियां चल रही हैं। उसके निर्माण कार्यों आदि के लिएजो 5 लाख श्रमिक कार्यरत् हैं, उनमें अधिकतर भारतीय हैं। उनके कर्मियों के दर्दनाक शोषण की जो तस्वीर गत वर्ष एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जारी की, वह दिल दहला देती है। हाल में इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कंफेडरेशन ने भारत व नेपाल के दूतावासों द्वारा एकत्र जानकारी के आधार पर बताया कि गर्मी व अन्य कारणों से कतर परियोजना में कार्यरत 700 से अधिक भारतीय अकाल मृत्यु के शिकार हो चुके हैं। औसतन हर महीने 20 भारतीय कर्मी जान से हाथ धो रहे हैं।
पिछले हफ्ते ओडिशा के केंद्रापाड़ा के प्लंबरों सहित जो भारतीय इराक से लौटे, उन्होंने बताया कि हर क्षण उनके साथी अकाल मृत्यु की घंटियां सुनते दहशत के दौर से गुजर रहे हैं। उनके साथ पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और हरियाणा से जो 137 भारतीय वापस लौट सके, वे इस मायने में भाग्यशाली थे कि उनकी तैनाती शिया धर्मस्थल करबला में हुई थी और उनका नियोक्ता रहमदिल था। इन कर्मियों ने भारतीय दूतावास की उन्हें सुरक्षित निकालने और स्वदेश भेजने की तत्परता तथा विमानतल तक पहुंचाने में इराकी सैनिकों की मदद की सराहना की।
वहीं मध्यपूर्व के देशों में कार्यरत उन प्रवासी भारतीय कर्मियों की संख्या हजारों में है, जो गत दो-ढाई दशकों से अमानवीय स्थितियों में हाड़ तोड़ने के कारण तथा आवश्यक उपचार के अभाव में दम तोड़ चुके हैं। उनके परिवारों के सपने मध्यपूर्व के रेगिस्तानों में झुलसकर बिखर गए। जिस प्रकार वहां अनेक देशों में कट्टरपंथी हिंसा भड़क रही है, वह प्रवासी श्रमिकों के लिए नई समस्याएं खड़ी कर रही है। सऊदी अरब और कुवैत जैसे तीन-चार देश ही प्रवासी श्रमिकों के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित रह गए हैं। परंतु वहां वे अलग किस्म की असुरक्षा के शिकार हो रहे हैं। सऊदी अरब में दो वर्ष पूर्व सरकारी पड़ताल के दौरान 14 लाख भारतीय कर्मियों के दस्तावेज फर्जी पाए जाने के कारण उन्हें रातों-रात वापस भेज दिया गया। कुवैत में कोई 20 लाख भारतीय काम कर रहे हैं। अब कुवैत सरकार प्रतिवर्ष आठ लाख प्रवासी श्रमिकों की छंटनी करने का निर्णय कर रही है।
ऐसे में भारत सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि मध्यपूर्व के देशों में कार्यरत भारतीयों की सुरक्षा के लिए ठोस प्रयास करने के साथ ही उनके भविष्य के लिए त्वरित निर्णय ले। उनके लिए कानूनी सुरक्षा का कवच भी तैयार किया जाए। श्रमशक्ति भारत की महत्वपूर्ण पूंजी है। उसके प्रति सरकार को सजग, सक्रिय और संवेदनशील होना चाहिए। पश्चिमी देशों की अपने नागरिकों के प्रति जो संवेदनशीलता है, वह तो हमारे लिए बहुत दूर की मंजिल है, परंतु नजदीकी पड़ोसी चीन की अपने प्रवासी कर्मियों की सुरक्षा के प्रति जो सतर्कता है, उसको अपनाने के प्रयास तो किए ही जाने चाहिए।