सत्य अनुभव की चीज है, तथ्य आकलन की. तथ्य यह है कि भारत के भीतर एक
वंचित भारत रहता है और सत्य यह कि इस वंचित भारत का निर्माण उसे जीवन जीने
के लिए जरूरी बुनियादी सेवाओं-सुविधाओं से बेदखल करके हुआ है. बुनियादी
सेवा-सुविधाओं से बेदखली के विराट आयोजन का ही नतीजा है कि इस मामले में
देश के कुछ समुदाय शेष की तुलना में कोसों पीछे हैं. मिसाल के लिए, सिर्फ
रसोई गैस के उपयोग की ही बात लीजिए. हालिया जनगणना (2011) के आंकड़ों के
अनुसार, अनुसूचित जनजाति के मात्र नौ फीसदी परिवार एलपीजी का उपभोग करते
हैं, दलित समुदाय के मात्र 17 फीसदी घरों को रसोई गैस की सुविधा है, जबकि
रसोई गैस का इस्तेमाल करने वाले परिवारों का राष्ट्रीय औसत 29 प्रतिशत है.
रसोई गैस का होना कई मायनों में भारतीय परिवारों के लिए आधुनिक होने
यानी देश की अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में शामिल होने का एक साक्ष्य है.
एलपीजी के हासिल होते ही लकड़ी जुटाने की सांसत से छुट्टी मिल जाती है. घर
की महिलाएं महसूस करती हैं कि आग का जलना-बुझना अंगुली के इशारे पर भी हो
सकता है. दूसरे रसोई गैस अब भी भारत में बाजार की मर्जी पर नहीं, बल्कि
सरकार की सब्सिडी पर निर्भर चीज है. सो, यह जेब में रुपये होने के बावजूद
आपको तभी मिल सकती है, जब नाम-पता-ठिकाना जांच लिया जाय. दूसरे शब्दों में
किसी परिवार के पास रसोई गैस का होना इस बात की गारंटी है कि उसकी गृहस्थी
(जीविका) चल रही है.
किसी एक वासस्थान पर नियत समय तक रहने की उसके पास गारंटी (गरिमापूर्ण
जीवन) है, यानी वह परिवार बेमकान व निरंतर पलायन का शिकार नहीं है. स्वयं
को स्थायी निवासी साबित करने के लिए उसके पास कुछ आधुनिक औजार मसलन- बैंक
या जमीन के कागजात हैं या फिर उसकी इतनी पहुंच है कि मुखिया-सरपंच,
विधायक-सांसद या किसी अधिकारी से अपनी रहनी-बसनी को साबित करने वाला दस्तखत
और मुहर हासिल कर सके.
इस अर्थ में देखें तो किसी परिवार के पास रसोई गैस का होना दरअसल देश
में जीवन जी सकने लायक स्थिति में होने का संकेतक हो सकता है. अगर यह बात
ठीक है, तो हमें तीन बातों को तुरंत मान लेना चाहिए. एक तो यह कि देश के
सत्तर फीसदी परिवार बुनियादी सुविधाओं के मामले में कुछ इस हद तक वंचित हैं
कि उनके लिए संविधान प्रदत्त जीवन जीने के अधिकार को उसके सकारात्मक अर्थो
में साकार करना संभव नहीं. दूसरा, बुनियादी सुविधाओं से वंचित परिवारों
में सर्वाधिक संख्या दलित और आदिवासी समुदायों की है और इस अर्थ में अंतिम
जन के आंख से आंसू के बूंद पोंछने का वादा एक अधूरा वादा है और तीसरी बात
यह कि देश की वृहत्तर आबादी को बुनियादी सुविधाओं से वंचित करने का काम
मुख्यत: राज्यसत्ता के हाथों बेदखली के एक विराट आयोजन द्वारा संभव हुआ है.
सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट (2012-13) तीन
बातों को रेखांकित करती है. एक, जिसे आज की राजनीतिक भाषा के भीतर हम विकास
यानी रोटी- कपड़ा- मकान, सेहत, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क और शौचालय आदि
के होनेसे जोड़ते हैं, उन्हें नागरिकों तक स्तरीय, प्रभावकारी और अत्यंत
जिम्मेवार ढंग से पहुंचाने का जिम्मा प्रधान रूप से राज्यसत्ता का ही है.
इस जिम्मेवारी को मुक्त बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि सबके
पास बाजार की कीमत चुका कर जरूरी चीजों को हासिल करने लायक क्षमता नहीं
है.
दूसरे, भारत के संदर्भ में बुनियादी सेवाओं-सामानों को नागरिक तक
पहुंचाने की राज्यसत्ता की विशेष जिम्मेवारी है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने
कई दफा सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को संविधानप्रदत्त जीवन जीने के मौलिक
अधिकार का विस्तार मान कर फैसला दिया है. इस वजह से भारत में जीवन जीने के
अधिकार का अर्थ मात्र यहीं तक सीमित नहीं कि किसी नागरिक से जीवन नहीं छीना
जा सकता. भारत में नागरिक को हासिल जीवन के मौलिक अधिकार का अर्थ है उन
सारी चीजों का अधिकार, जो एक सम्मानजनक जीवन को संभव बनाती हैं. तीसरी बात
कि बेदखली को जन्म देने और बनाये रखने वाली प्रणालियां व्यापक और इनका आपसी
संबंध पेचीदा होता है और ये संबंध राज्य, बाजार और समाज, तीनों स्तरों पर
सक्रिय रहते हैं. बुनियादी सुविधाओं-सामानों तक सभी की पहुंच सुनिश्चित न
करना या सबके लिए इनको जुटाने में असफल रहना दरअसल राज्यसत्ता द्वारा
नागरिक को उसके जीवन जीने के अधिकार से बेदखल करने का एक संकेत है.
नयी सरकार का वादा अंतिम जन को ध्यान में रख कर विकास-कार्य करने का है,
ऐसे में इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट भारत में राज्यसत्ता के स्वभाव की
परीक्षा के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है.